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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् के उपमर्द-हिंसा द्वारा सुख की अभिलाषा करते हैं वे अशील-शील रहित सदाचरण शून्य तथा कुशील-कुत्सितशील अनाचार युक्त पुरुष संसार में ऐसी अवस्थाएं अनुभव करते हैं, यों बताते हुए सूत्रकार आगे कहते हैं -
थणंति लुप्पंति तस्संति कम्मी, पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू । तम्हा विऊ विरतो आयगुत्ते, दटुं तसे या पडिसंहरेजा ॥२०॥ छाया - स्तनन्ति लुप्यन्ते त्रस्यन्ति कर्मिण, पृथक् जन्तवः परिसंख्याय भिक्षुः ।
तस्माद् विद्वान् विरत आत्मगुप्तो दृष्ट्वा त्सांश्च प्रतिसंहरेत् ॥ अनुवाद - पाप कर्मा प्राणी नरक आदि में यातना भोगते हैं पीड़ित होते हैं, रोते चीखते हैं । यह जानता हुआ पाप से विरत, आत्मगुप्त हिंसा आदि से निवृत्त भिक्षु-मुनि त्रस तथा स्थावर प्राणियों का व्यापादनहनन न करें।
टीका - तेजः कायसमारम्भिणो भूतसमारम्भेण सुखमभिषन्तो नरकादिगतिं गतास्त्रीव्रदुः खैः पीड्यमाना असह्यवेदनाघ्रातमानसा अशरणाः 'स्तनन्ति' रुदन्ति केवलं करुणमाक्रन्दन्तीतियावत् तथा 'लुप्पंती' ति छिद्यन्ते खड्गादिभिरेवं च कदर्थ्यमानाः 'त्रस्यन्ति' प्रपलायन्ते, कर्माण्येषां सन्तीति कर्मिणः-सपापा इत्यर्थः, तथा पृथक् 'जगा' इति जन्तव इति, एवं परिसङ्घयाय' ज्ञात्वा भिक्षणशीलो 'भिक्षुः' साधुरित्यर्थः, यस्मात्प्राण्युपमर्दकारिणः संसारान्तर्गता विलुप्यन्ते तस्मात् 'विद्वान्' पण्डितो विरतः पापानुष्ठानादात्मा गुप्तो यस्य सोऽयमात्मगुप्तो मनोवाक्कायगुप्त इत्यर्थः, दृष्ट्वा च त्रसान् च शब्दात्स्थावरांश्च 'दृष्ट्वा' परिज्ञाय तदुपघातकारिणीं क्रियां 'प्रतिसंहरेत्' निवर्तयेदिति ॥२०॥ साम्प्रतं स्वयूथ्याः कुशीला अभिधीयन्त इत्याह
टीकार्थ - जो पुरुष अग्निकाय के समारंभ-हिंसा में प्रवृत होते हैं, प्राणियों की हिंसा से सुख पाने की अभिलाषा करते हैं, वे नरक आदि गतियों में जाकर घोर दुःखों से उत्पीड़ित किये जाते हैं । वे असह वेदना से परितप्त होकर करुण क्रन्दन करते रहते हैं क्योंकि वहाँ उन्हें कोई बचाता नहीं । वे तलवार आदि शस्त्रों से उच्छिन्न किये जाते हैं-काटे जाते हैं । यों पीड़ित होते हुए वे भयभीत होकर भागते हैं । जो पापयुक्त कर्म करते हैं, उन्हें कर्मी कहा जाता है । पाप सहित पुरुष कर्मी के रूप में अभिहित होते है । इन पापियों की भिन्न-भिन्न अवस्थाएं होती हैं। जो प्राणियों का उपमर्दन-हनन करते हैं, वे संसार में रहते हए कष्ट भोगते हैं । यह जानकर भिक्षु-भिक्षावृत्ति से स्वजीवन निर्वाहक विद्वान्-विवेकशील पापों से निवृत्त तथा मन-वचन एवं शरीर द्वारा आत्मगुप्त साधु त्रस एवं स्थावर प्राणियों को जानकर उनकी हिंसात्मक क्रिया से निवृत्त रहे। अब अपनी यूथगत कुशीलों की चर्चा की जा रही हैं ।
जे धम्मलद्धं विणिहाय भुंजे, बियडेण साहटु य जे सिणाई। जे धोवती लूसयतीव वत्थं, आहाहु से णागणियस्स दूरे ॥२१॥ छाया - यो धर्मलब्धं विनिधाय भुङ्क्ते विकटेन संहृत्य च यः स्नाति ।
यो धावति भूषयति च वस्त्रम् अथाहुः स नाग्न्यस्य दूरे ॥
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