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कुशील परिज्ञाध्ययनं । है कि इन कर्मों से सिद्धि प्राप्त नहीं होती । इसलिए जिनके ये सिद्धान्त हैं वे अज्ञानी हैं, इन कर्मों द्वारा वे भव भ्रमण प्राप्त करेंगे। अत: यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर पुरुष त्रस-गतिशील, स्थावर-स्थितिशील प्राणियों की अपने सुख के लिए हिंसा न करे ।
टीका - यैर्मुमुक्षुभिरूदकसम्पर्केणाग्निहोत्रेण वा सिद्धिरभिहिता वैः 'अपरीक्ष्य दृष्टमेतत्' युक्तिविकलमभिहितमेतत्, किमिति ? यतो 'नहु' नैव 'एवम्' अनेन प्रकारेण जलावगाहनेन अग्निहोत्रेण वा प्राण्युमईकारिणा सिद्धिरिति ते च परमार्थमबुद्धयमानाः प्राण्युपघातेन पापमेव धर्मबुद्धया कुर्वन्तो घात्यन्ते-व्यापाद्यन्ते नानाविधैः प्रकारैर्यस्मिन् प्राणिनः स घात:-संसारस्तमेष्यन्ति, अप्कायतेजःकायसमारम्भेण हि त्रसस्थावराणां प्राणिनामवश्यं भावी विनाशस्तद्विनाशे च संसार एव न सिद्धिरित्यभिप्रायः, यत एवं ततो 'विद्वान्' सदसद्विवेकी यथावस्थित तत्त्वं गृहीत्वा त्रस स्थावरैर्भूतैः-जन्तुभिः कथं साम्प्रतं-सुख मवाप्यत इत्येतत् प्रत्युपेक्ष्य जानीहि-अवबुद्धयस्व, एतदुक्तं भवति-सर्वेऽप्यसुमन्तः सुखैषिणो दुःखद्विवो न च तेषां सुखैषिणां दुःखोत्पादकत्वेन सुखावाप्तिर्भवतीति, यदि वा-'विजं गहाय' त्ति विद्यां ज्ञानं गृहीत्वा विवेकमुपादाय त्रसस्थावरैर्भूतैजन्तुभिः करणभूतैः ‘सातं' सुखं 'प्रत्युपेक्ष्य' पर्यालोच्य 'जानीहि' अवगच्छेति, यत उक्तम् -
"पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्व संजए । अन्नाणि किं काही, किं वा णाही हेय पावगं ॥१॥ छाया- प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं तिष्ठति सर्वसंयतेषु । अज्ञानि किं करिष्यति किं वा ज्ञास्यति छेकपापकं॥
इत्यादि ॥१९॥ ये पुनः प्राण्युपमर्दैन सातमभिलषन्तीत्यशीलाः कुशीलाश्च ते संसारे एवं विधा अवस्था अनुभवन्तीत्याह -
टीकार्थ - मोक्ष की अभिलाषा रखते हुए भी जो लोग जल में अवगाहन स्नान आदि तथा अग्नि में हवन आदि द्वारा सिद्धि प्राप्त होना बतलाते हैं, वे यह ध्यान नहीं देते कि उनका यह अभिमत कितना युक्ति रहित है, क्योंकि जल में अवगाहन और अग्नि में हवन करने से जीवों का घात होता है । इस जीव हिंसा परक क्रिया से मोक्ष प्राप्त होना संभावित नहीं है । वास्तव में वे वस्तु तत्व के परिज्ञाता नहीं हैं अतएव वे धर्म मानकर प्राणियों की हिंसा करते हैं, पाप करते हैं । ऐसे पापकर्म के सेवन के परिणाम स्वरूप वे घात को ही प्राप्त होते हैं, जिसमें प्राणि भिन्न-भिन्न प्रकार से हतप्रतिहत किये जाते हैं, उसे घातक कहते हैं । यहाँ यह घात शब्द संसार का द्योतक है । उपर्युक्त सिद्धान्तों को मानने वाले वे घात-संसार में वास करेंगे, पर्यटन करेंगे, मोक्ष नहीं पायेंगे क्योंकि अपकाय तथा अग्निकाय के आरम्भ समारम्भ से त्रस तथा स्थावर प्राणियों का निश्चय ही ध्वंस होता है, और उनके परिणाम स्वरूप संसार-भव भ्रमण ही प्राप्त होता है । मुक्ति प्राप्त नहीं होती । अतएव सत् एवं असत् के परिज्ञाता विवेकशील विद्वान पुरुष को यही चिन्तन करना चाहिए कि जंगम एवं स्थावर प्राणियों के हनन-हिंसा से जीव को सुख कैसे हो सकता है । कहने का अभिप्राय यह है कि संसार में सभी जीव सुख की अभिप्सा करते हैं तथा दुःख को द्वेष्य-अप्रिय, अवाञ्छनीय मानते हैं, सुखाभिलाषी प्राणियों को दुःख, पीड़ा देने से सुख कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता । अतएव कहा है पहले विद्या-यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर, विवेकशील बन, पुरुष को यह जानना चाहिए । त्रस एवं स्थावर प्राणियों को सुख देने से ही सुख प्राप्त होता है । इनका स्वरूप समझकर इनको त्राण देने से ही-रक्षा करने से ही सुख मिलता है । अतएव शास्त्र में कहा गया है कि पहले ज्ञानोपलब्धि तथा फिर दया-करुणा आदि धार्मिक क्रिया में प्रवृत्ति की जाती है । जो इस तथ्य को नहीं जानता, वह अज्ञ पुरुष क्या कर सकता है । वह पुण्य और पाप के स्वरूप को समझ ही नहीं पाता । जो प्राणियों
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