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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् करता हुआ बीज एवं फल का विध्वंस करता है । ऐसा करने वाला सही मायने में साधु नहीं है किन्तु गृहस्थ ही है । जो साधु के रूप में प्रव्रजित-दीक्षित हैं वह भी यदि ऐसा कर्म करता है तो गृहस्थ ही है । हरी वनस्पति का छेदन भेदन करने वाला पुरुष अपनी आत्मा को दण्डित करता है । दूसरे प्राणी का विनाश कर वह वास्तव में अपनी आत्मा का ही हनन करता है । इस गाथा में अथ शब्द वाक्यालंकार के अर्थ में आया है । उस पुरुष के सम्बन्ध में तीर्थंकर आदि ने यह कहा है । क्या कहा है ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं कि जो निरनुकोष-दया हीन पुरुष हरी वनस्पति को काटता है वह इस लोक में अनार्य धर्मा है, क्रूर कर्मकारी है । वह कौन है यह बतलाते हुये कहते हैं कि जो पुरुष धर्म का नाम लेकर अपनी सखस
विधा हेतु बीज का नाश करता है वह चाहे पाखण्डी हो या अन्य कोई हो, वह अनार्य धर्मा ही है। यहाँ बीज का नाश उपलक्षण है । उसका तात्पर्य वनस्पतिकाय के नाश से है । अब हरी वनस्पति के छेदन का कर्म विपाक बतलाते हुये सूत्रकार कहते हैं ।
गब्भाइ मिजंति बुयाबुयाणा, णरा परे पंचसिहा कुमारा । जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, (पाठांतरेपोरुसा य) चयंति ते आउखए पलीणा ॥१०॥ छाया - गर्भे नियन्ते ब्रुवन्तोऽब्रुवन्तश्च, नराः परे पञ्चशिखाः कुमाराः ।
युवानो मध्यमाः स्थविराश्च, त्यजन्ति ते आयुः क्षये प्रलीनाः ॥ · अनुवाद - जो हरी वनस्पति का छेदन भेदन करते हैं, वैसे कई पुरुष अपनी माँ के गर्भ में ही नष्ट हो जाते हैं । कई स्पष्ट बोलने की अवस्था-जब साफ-साफ बोलने लगते हैं, तब मर जाते हैं । कई स्पष्ट बोलने की अवस्था आने के पहले ही मर जाते है । कई कुमार अवस्था, कई युवा अवस्था में, कई अर्धा अवस्था में-अधेड अवस्था में कई वद्धावस्था में मर जाते हैं। कहने का अर्थ यह है कि वे प्रत्येक अवस्था में मरण प्राप्त करते हैं।
___टीका - इह वनस्पतिकायोपमईका: बहुषु जन्मसु गर्भादिकास्ववस्थासु कललार्बुमांसपेशीरुपासु म्रियन्ते, तथा 'ब्रुवन्तोऽब्रुवतश्च' व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचश्च तथा परे नराः पञ्चशिखाः कुमाराः सन्तो म्रियन्ते, तथा युवानो मध्यमवयसः स्थविराश्च क्वचित्पाठो 'मज्झिमपोरुसा य' तत्र 'मध्यमा' मध्यमवयसः 'पोरुसा य' त्ति पुरुषाणां चरमावस्थां प्रप्ता अत्यन्तवृद्धा एवेतियावत्, तदेवं सर्वास्वप्यवस्थासु बीजादीनामुपमईकाः स्वायुषः क्षये प्रलीनाः सन्तो देहं त्यन्तीति, एवमपरस्थावरजङ्गमोपमईकारिणामप्यनियतायुष्कत्वमायो जनीयम् ॥१०॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - जो जीव वनस्पतिकाय का विनाश करते हैं वे बहुत जन्म तक कलल, अर्बुद मांस पेशी आदि गर्भावस्थाओं में ही समाप्त हो जाते हैं । कई जब वे साफ-साफ बोलने लगते हैं तब, तथा कई अन्य जब पंचशिक-पांच शिखायुक्त या धुंघराले बालों सहित कुमारावस्था में होते हैं तभी मर जाते है । कई तरुण होकर, कई बीच की आयु में, कई बूढ़े होकर मर जाते हैं । कहीं मज्झिम पुरुषाय ऐसा पाठ है उसका तात्पर्य यह है कि जो हरी वनस्पति का छेदन करता है, वह पुरुष मध्यम अवस्था में, कोई अन्तिम अवस्था में, अत्यन्त वृद्ध होकर मरता है । इस प्रकार जो हरी वनस्पति का छेदन करते हैं वे सभी अवस्थाओं में आयुष्य का क्षय होने पर देह त्याग कर जाते हैं । इसी प्रकार जो पुरुष अन्य स्थावर-स्थितिशील, तथा जंगम गतिशील प्राणियों का विनाश करते हैं उनकी आयु का भी अनिश्चित होना जोड़ लेना चाहिए, जान लेना चाहिए ।
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