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कुशील परिज्ञाध्ययनं संबुज्झहा जंतवो ! माणुसत्तं, दटुं भयं वालिसेणंअलंभो । एगंतदुक्खे जरिए व लोए, सकम्मुणा विप्परियासुवेइ ॥११॥ छाया - संबुध्यध्वं जन्तवो ! मनुष्यत्वं, दृष्ट्वा भयं वालिशेनालाभः ।
___ एकान्तदुःखो ग्वरित इव लोकः स्वकर्मणा विपर्यासमुपैति ॥
अनुवाद - प्राणी वृन्द बोध-ज्ञान प्राप्त करें । मनुष्य जन्म मिलना बहुत कठिन है । देखो नरक योनि में तथा तिर्यंच योनि में कितने कष्ट होते हैं । यह सब देखते हुए भी वालिश-विवेकशून्य जीव को बोध प्राप्त नहीं होता । ज्वर से पीड़ित पुरुष की तरह यह संसार निश्चित रूप में दुःखमय है । जीव सुख के लिए पाप करता है और उसके परिणाम स्वरूप दुःख भोगता है ।
___टीका - हे ! जन्तवः प्राणिनः ! सम्बुध्यध्वं यूयं, नहि कुशीलपाषण्डिकलोक स्त्राणाय भवति, धर्मं च सुदुर्लभत्वेन सम्बुध्यध्वं, तथा चोक्तम् -
"माणुस्स खेत्तजाई कुलरूवारोग्गमाउयं बुद्धी । सवणोग्गहसद्धा संजमो य लोगंमि दुलहाई ॥१।" छाया- मानुष्यंक्षैत्रं जातिः कुलंरूपमारोग्ययायुः बुद्धिः । श्रवणभवग्रहः श्रद्धा संयमश्च लोके दुर्लभानि॥१॥
तदेवमकृतधर्माणां मनुष्यत्वमतिदुर्लभमित्यवगम्य तथा जातिजरामरणरोगशोकादीनि नरकतिर्यक्षु च तीव्रदुः खतया भयं दृष्ट्वा तथा 'बालिशेन' अज्ञेन सदसद्विवेकस्यालम्भ इत्येतच्चावगम्य तथा निश्चयनयमवगम्य एकान्तदुःखोऽयं ज्वरित इवं 'लोकः' संसारिपाणिगणः, तथा चोक्तम् -
"जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगा य मरणाणिय । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो ॥१॥" छाया - जन्मदुःखं जरादुःखं रोगाश्च मरणं च । अहो दुःख एव संसारः यत्र क्लिश्यन्ति प्राणिणः ॥१॥ तथा - "तण्हाइयस्स पाणं कुरो छुहियस्स भुज्जए तित्ती । दुक्खसयसंपउत्तं जरियमिव जगं कलयलेइ ॥१॥" छाया - तृष्णार्दितस्य पानं कूरः क्षुधितस्य भुक्तौतृप्तिः । दुःखशतसम्प्रयुक्तं ज्वरितमिव जगत्कलति ॥१॥
इति, अत्र चैवम्भूते लोके अनार्यकर्मकारी स्वकर्मणा 'विपर्यासमुपैति' सुखाथी प्राण्युपमई कुर्वन् दुःखं प्राप्नोति, यदि वा मोक्षार्थी संसारं पर्यटतीति ॥११॥ उक्तः कुशीलविपाकोऽधुना तद्दर्शनान्यभिधीयन्ते
टीकार्थ - प्राणियों तुम बोध-सम्यक् ज्ञान प्राप्त करो । कुशील, अनाचार्य, पाखण्डी मिथ्यावादी जन तुम्हें त्राण नहीं दे सकते । धर्म की प्राप्ति भी सुदुर्लभ है, इसे समझो । कहा है मनुष्य-मनुष्य योनि में जन्म, उत्तम क्षेत्र, जाति, कुल, रूप, आरोग्य-अच्छा स्वास्थ्य, आयु, बुद्धि, श्रमण-ग्रहण, श्रद्धा, संयम लोक में दुर्लभ हैं । जिन्होंने धर्म का आचरण नहीं किया उनको मनुष्य योनि में जन्म मिलना अत्यन्त कठिन है । इसे समझते हुये तथा जन्म, वृद्धावस्था, मृत्यु, रोग, शोक तथा नरक एवं त्रिर्यच गति में उत्पद्यमान तीव्र-दुःखों के भय को देखकर, अज्ञ-अज्ञानी जीव को सत् एवं असत् को समझने में अक्षम, समझते हुये सम्यक् बोध प्राप्त करो। यह भी समझो कि निश्चय नयानुसार समग्र संसार भय से आक्रान्त-उत्पीड़ित पुरुष की ज्यों एकान्त रूप से दुःखमय है । कहा गया है कि इस संसार में जन्म, वृद्धावस्था, रुग्णता एवं मृत्यु-ये सब दुःख ही दुःख हैं। इसलिए यह संसार दुःखरूप है । इसमें प्राणी क्लेश भोगते रहते हैं । पिपासित व्यक्ति को पानी पीने से, बुभुक्षित
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