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कुशील परिज्ञाध्ययनं
टीकार्थ- इस मानव लोक में अथवा मोक्ष गमनाधिकार में मोक्ष कैसे मिलता है, इस सन्दर्भ में अज्ञान
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से आवृत्त बुद्धि युक्त तथा औरों द्वारा मोह में संप्रवेशित मूढ अज्ञ जन इस प्रकार कहते हैं कि नमक खाना छोड़ देने से मोक्ष प्राप्त हो जाता है । जो आहृत किया जाता है-खाया जाता है उसे आहार कहते हैं भात - पके हुए चावल आदि को आहार कहा जाता है। जिससे आहार का रस परिपुष्ट होता है उसे आहार समपज्जन कहते हैं । उसका तात्पर्य लवण - नमक है । क्योंकि खाद्य पदार्थों के रस का परिपोषण, संवद्धन उसी से होता है। कई लोग ऐसा कहते हैं कि नमक का त्याग कर देने से मोक्ष मिलता है । यहाँ आहार सपन्ववज्जणेण ऐसा पाठान्तर प्राप्त होता है । इसका आशय यह है कि भोजन के साथ पांच प्रकार के नमकों को त्याग देने से मोक्ष प्राप्त होता है । सैन्धव, सौवर्चल, विडं, रौम और सामुद्र-ये पाँच प्रकार के नमक हैं । समस्त रसों में नमक से ही उनकी अभिव्यक्ति- अनुभूति होती हैं । कहा गया है कि नमक रहित रस, नेत्र रहित इन्द्रिय गण, दया रहित धर्म, सन्तोष रहित सुख वास्तव में सुख नहीं है। रसों में नमक, स्निग्ध पदार्थों में तेल, मेध्य - शक्तिवर्द्धक पदार्थों में घृत सर्वोत्तम है । अतः नमक का त्याग करने से सभी रसों का परित्याग हो जाता है । और रस मात्र के त्याग से मोक्ष प्राप्त होता है, उन अज्ञजनों का ऐसा कथन है । 'आहारओ पंचकवज्जणेण यहाँ ऐसा पाठान्तर भी प्राप्त होता है, इसका अभिप्राय यह है कि पांच वस्तुओं का भोजन में प्ररिवर्जन करने से मोक्ष प्राप्त होता है । ऐसा कतिपय अज्ञ जनों का कथन है । यहाँ आहारोपद में व्याकरण की दृष्टि से 'लयलोपेकर्माणिपञ्चमी' इस सूत्र द्वारा पञ्चमी विभक्ति हुई है । भोजन में उक्त त्याज्य पांच पदार्थ इस प्रकार है-लहसुन, प्याज, ऊँटनी का दूध, गौ मांस तथा मदिरा । इन पांचों पदार्थों का त्याग कर देने से कतिपय अज्ञानी जन मोक्ष प्राप्त होना प्रतिपादित करते हैं । वारीभद्रक आदि भागवत विशेष, शीतल उदक- सचित अपकाय - जल के परिभोग से मोक्ष प्राप्त होना निरूपित करते हैं। इस सम्बन्ध में वे अपनी उपपत्ती-युक्ति प्रस्तुत करते हैं, पानी जैसे बाहर के मैल का अपनयन करता है, उसे दूर करता है । इसी प्रकार वह भीतर के मल को भी प्रक्षालित कर देता है । कपड़े आदि की शुद्धि-स्वच्छता जल से होती है। यों जल में बाहरी मैल को प्रक्षालित करने की शक्ति विद्यमान है। इसे देखते हुये वे लोग भीतरी मल की शुद्धि-स्वच्छता जल से होती है ऐसा मानते हैं । कई तापस परम्परालु वृत्ति जन तथा ब्राह्मण आदि हवन करने से मोक्ष मिलता है, ऐसा प्रतिपादित करते हैं। वे कहते हैं पुरुष स्वर्ग आदि की कामना न कर समिधा, हवनीय काष्ठ तथा घृत आदि हव्य विशेष द्वारा अग्नि को तृप्त करते हैं, उनका यह अग्निहोत्र मोक्ष के लिए है। इस कर्म से उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है । जो स्वर्ग आदि की आकांक्षा से हवन करते हैं उन्हें स्वर्ग प्राप्ति आदि के रूप में अभ्युदय- उन्नयन प्राप्त होता है । इस सम्बन्ध में वे यह युक्ति उपस्थित करते हैं। अग्नि स्वर्ण के मल को जला देती है। अतः अग्नि में मल को जलाने की शक्ति दृष्टिगोचर होती है । वह आत्मा के आन्तरिक पाप रूप मल को भी जला देती है। यह निश्चित है। इस प्रकार असम्बद्ध, असंगत, प्रलपनशील, परमतवादियों को उत्तर देने हेतु सूत्रकार प्रतिपादित करते हैं ।
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पाओसिणांणादिसुणत्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासएणं । ते मज्जमंसं लसुणं च भोच्चा, अनत्थ वासं परिकप्पयंति ॥१३॥
छाया
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प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक्षः, क्षारस्य लवणस्यानशनेन । ते मद्यमासं लशुनञ्च भुक्त्वाऽन्यत्र वासं परिकल्पयन्ति ॥
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