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कुशील परिज्ञाध्ययनं तथा अपर्याप्त दो-दो भेद हैं इसी प्रकार अपकाय, अग्निकाय तथा वायुकाय के जीव हैं, यह जानना चाहिए। वनस्पति काय के जीवों को भिन्न-भिन्न रूप में सूत्रकार बतलाते हैं । तृण-कुश आदि वृक्ष, अश्वस्त्था या पीपल आदि बीज-चांवल आदि धान्य, लता तथा झाड़ी आदि भी वनस्पति के भेद हैं यह जाने । जो त्रास पाते हैं वे द्वीइन्द्रिय आदि प्राणी एवं अण्डे से उत्पन्न पक्षी और सर्प आदि तथा जलायुज-जम्बाल जर से परिविष्ठतजन्मने वाले गाय, भैंस, बकरी, भेड़ तथा मनुष्य आदि एवं स्वेद-पसीने से पैदा होने वाले खटमल कृमि आदि एवं दही और कांजी आदि से उत्पन्न सूक्ष्म पक्ष्मयुक्त-छोटे छोटे पंख वाले जीव-ये सब प्राणी हैं ।
जीवों के भेद दिखलाकर अब सूत्रकार उनके उपघात में-हिंसा में दोष बताने हेतु प्रतिपादित करते है । तीर्थंकरों ने इन पृथ्वीकाय आदि को जीव समूह कहा है । यहाँ छान्दस होने के कारण नपुंसक लिंग का प्रयोग है इन पृथ्वीकाय आदि जीवों में सुख की वाँछा होती है यह जानना चाहिए कहने का अभिप्राय यह है कि ये सभी प्राणी सुख चाहते है व दुःख से द्वेष करते है । यह जानकर कुशाग्र बुद्धि-तीव्र बुद्धि युक्त पुरुष ये विचार करें कि इनको उत्पीड़ित करने से अपनी आत्मा दण्डनीय होती है, अर्थात् इनकी हिंसा करने से आत्मा को दुःख भोगना पड़ता है । जो इन प्राणियों की दीर्घकाल पर्यन्त दण्ड देते है, हिंसा करते है उसके परिणामस्वरूप उनकी जो दशा होती है सूत्रकार उसका दिग्दर्शन कराते है । पूर्ववर्णित पृथ्वीकाय आदि जीवों को कष्ट देने वाले, पीड़ित करने वाले प्राणी इन पृथ्वीकाय आदि योनियों में ही पुनः पुनः जन्म प्राप्त करते
प्राणी सुख पाने के लिए जीवों का आरम्भ समारंभ करते हैं । उनकी हिंसा करते हैं परन्तु उससे दुःख ही प्राप्त होता है । सुख प्राप्त नहीं होता, अथवा कुतीर्थिक मिथ्या मतवादी मोक्ष के हेतु इन प्राणियों द्वारा जो क्रिया करते हैं, इससे उनका संसार में आवागमन का चक्र बढ़ता है ।
इन प्राणियों को दण्ड देकर व्याहत्कर मोक्ष की कामना करने वाले पुरुष हिंसा के परिणामस्वरूप मोक्ष के प्रतिकूल संसार को ही प्राप्त करते हैं । सूत्रकार यह प्रकट करते हैं।
जाईपहं अणुपरिवट्टमाणे, तसथावरेहिं विणिघायमेति । से जाति जातिं बहुकूरकम्मे, जं कुव्वती मिजति तेण बाले ॥३॥ छाया - जाति पथमनुपरिवर्तनमानस्त्र-सस्थावरेषु विनिघातमेति ।
स जाति जातिं बहुक्रूरकर्मा, यत् करोति म्रियते तेन बालः ॥ अनुवाद - एकेन्द्रिय आदि प्राणियों को जो दण्ड देता है, उनकी हिंसा करता है, वह उन्हीं एकेन्द्रिय आदि योनियों में उत्पन्न होता है, मरता है, वह त्रसों एवं स्थावरों में जन्म लेकर पैदा होकर नष्ट होता है। वह पुनः जन्म लेता हुआ क्रूरता पूर्ण कर्म करता हुआ, अपने ही कर्म से मरता हैं ।
___टीका - जातीनाम्-एकेन्द्रियादीनां पन्था जातिपथः, यदिवा-जाति:-उत्पत्तिर्बधो-मरणं जातिश्च वधश्च जातिवधं तद् 'अनुपरिवर्तमानः' एकेन्द्रियादिषु पर्यटन् जन्मजरामरणानि वा बहुशोऽनुभवन् 'सेषु' तेजोवायुद्वीन्द्रिया दिषु स्थावरेषु' च पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु समुत्पन्नः सन् कायदण्डविपाकजेन कर्मणा बहुशो 'विनिघातं' विनाशमेतिअवाप्नोति 'स' आयतदण्डोऽसुमान् 'जातिं जातिम्' उत्पत्तिमवाप्य बहूनि क्रूराणि-दारूणान्यनुष्ठानानि यस्य
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