________________
।
| श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् स भवति बहुक्रूरकर्मा स एवम्भूतो निर्विवेकः सदसद्विवेकशून्यत्वात् बाल इव बालो यस्मामेकेन्द्रियादिकायां जातौ यत्प्राण्युपमर्दकारि कर्म कुरुते स तेनैव कर्मणा 'मीयते' म्रियते पूर्यते यदिवा 'मीङ् हिंसायां' मीयते हिंस्यते अथवा-बहु क्रूरकर्मेति चौरोऽयं पारदारिक इति वा इत्येवं तेनैव कर्मणा मीयते-परिच्छद्यत इति ॥३॥ क्व पुनरसौ तैः कर्मभिर्मीयते इति दर्शयति - - टीकार्थ - एकेन्द्रिय आदि जातियों का मार्ग-जातिपथ कहा जाता है, अथवा उत्पत्ति को जाति कहा जाता है एवं मरण को वध कहा जाता है । इन दोनों को जातिवध कहते हैं । यहाँ ज्ञातव्य है कि प्राकृत में आया हुआ 'ह' संस्कृत में थ और ध दोनों में परिवर्तित हो जाता है । अतएव यहाँ जातिपथ एवं जातिवध ये दो रूप प्रस्तुत हैं । वहाँ एकेन्द्रिय आदि जातियों में जीव परिभ्रमण करता है । बारबार जन्म और मृत्यु का अनुभव करता है । वह अग्नि, वायु तथा द्विइन्द्रिय आदि त्रस प्राणियों में एवं पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि स्थावर प्राणियों में जन्म लेकर दण्ड-हिंसात्मक कर्म के परिणामस्वरूप बार-बार नष्ट होता है । प्राणियों के लिए अत्यन्त दण्डप्रद तथा पुनः पुनः जन्म लेकर उनके साथ अत्यन्त क्रूर निर्दयता पूर्वक कर्म करने वाला वह जीव सत् और असत् के विवेक से रहित होने के कारण बाल की ज्यों अज्ञ है । वह जिस एकेन्द्रिय आदि जाति में प्राणी विघातक कर्म करता है, उसी से वह मर जाता है, अथवा उसी कर्म के फलस्वरूप मारा जाता है, अथवा वह अत्यन्त क्रूर कर्मा पुरुष यह चोर है, पारदारिक-परस्त्रीगामी है, इत्यादि रूप में उसी कर्म के फलस्वरूप लोक में पहचाना जाता है । वह अपने कर्मों द्वारा कहाँ दुःख भोगता है ? सूत्रकार इसे प्रकट करते हुए कहते हैं।
अस्सिं चलोए अदुवा परत्था, सयग्गसो वा तह अन्नहा वा । संसारयावन्न परं परं ते, बंधंति वेदंति य दन्नियाणि ॥४॥ छाया - अहिंसश्च लोकेऽथवा परस्तात्, शताग्रशो वा तथाऽन्यथावा ।
संसारमापन्नाः परं परन्ते, बध्नन्ति वेदयन्ति च दुर्नीतानि ॥ अनुवाद - कोई कर्म ऐसा है, जो करने वाले को इसी जन्म में फल देता है, तथा कोई कर्म आगे के जन्म में फल देता है । कोई कर्म एक ही जन्म में फल देता है, तो कोई सैंकड़ों जन्मों में फल देता जाता है । कोई कर्म जैसे किया जाता है उसी प्रकार फल देता है । तो कोई कर्म दूसरे प्रकार से फल देता है । अनाचारी पुरुष सदैव भवचक्र में भटकते रहते हैं । वे एक कर्म का दुःखमय फल भोगते हुए आर्तध्यान करते हैं जिससे और कर्म बंधते जाते हैं । यों वे अपने पापों का सदैव फल भोगते जाते हैं ।
टीका - यान्याशुकारीणि कर्माणि तान्यस्तिमन्नेव जन्मनि विपाकं ददति, अथवा परस्मिन् जन्मनि नरकादौ विपाकं ददति, एकस्मिन्नेव जन्मनि विपाकं तीवं ददति 'शताग्रशो वे' ति बहुषु जम्मसु, येनैव प्रकारेण तदशुभमाचरन्ति तथैवोदीर्यते तथा-'अन्यथा वेति, इदमुक्तं भवति-किञ्चित्कर्म तद्भव एव विपाकं ददाति किञ्चिच्च जन्मान्तरे, यथा-मृगपुत्रस्य दुःख विपाकाख्ये विपाक श्रुताङ्गश्रुतस्कन्धे कथितमिति, दीर्घकाल स्थितिकं त्वपरजन्मान्तरितं वेद्यते, येन प्रकारेण सकृत्तथैवानेकशो वा, यदिवाऽन्येन प्रकारेण सकृत्सहस्त्रसो वा शिरच्छेदादिकं हस्तपादच्छेदादिकं चानुभूयत इति, तदेवं ते कुशीला आयतदण्डाश्चतुर्गतिकसंसारमापन्ना अरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसारं पर्यटन्तः परं परं' प्रकृष्टं प्रकृष्टंदुःखमनुभवन्ति अन्मान्तरकृतं कर्मानुभवन्तश्चैकमार्तध्यानोपहता
-368)