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कुशील परिज्ञाध्ययनं
अपरं बधन्ति वेदयन्ति च दुष्टं नीतानि दुर्नीतानि - दुष्कृतानि न हि स्वकृतस्य कर्मणो विनाशोऽस्तीतिभाव:, तदुक्तम्
"मा होहि रे विसन्नो जीव ! तुमं विमण दुम्मणो दीणो । गहु चिंतिएण फिट्टइ तं दुक्खं जं पुरा रइयं ॥१॥ छाया - मा भवरे विषण्णो जीव ! त्वं विमना दुर्भवा दीनः । नैव चिन्तितेनस्फेटते तदुखं यत्पुरारचितं ॥ १ ॥ जइ पविससि पायालं अडविंव दरिं गुहं समुद्दं वा । पुव्वकयाउ न चुक्कसि अप्पाणं घायसे जइवि ॥२॥ छाया - यदि प्रविशसि पातालंअटवीं वादरीं गुहांसमुद्रंवा । पूर्वकृतान्नैव भ्रश्यसि आत्मानं घातयसि यद्यपि ॥ १ ॥ ॥४॥ एवं तावदोघतः कुशीलाः प्रतिपादिताः, तदधुना पाषण्डिकानधिकृत्याह
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टीकार्थ - जो कर्म शीघ्र फलप्रद होते हैं, वे करने वाले को इसी जन्म में फल देते हैं, अथवा कई कर्म ऐसे हैं, जो दूसरे जन्म में नरक आदि में अपना फल देते हैं। कई कर्म केवल एक ही जन्म में अपने कर्मों के तीव्र विपाक स्वरूप कष्ट देते हैं, अथवा सैंकड़ों जन्मों में अपना फल देते हैं । प्राणी कोई एक अशुभ कर्म जिस प्रकार करता है, वह उसको उसी प्रकार से फल देता है, अथवा अन्य प्रकार से भी देता है । कहने का तात्पर्य है कि कोई कर्म उसी जन्म में विपाक - फल उत्पन्न करता है, तो कोई दूसरे जन्म में वैसा करता है । विपाक सूत्र के दुःखविपाक नामक श्रुत स्कन्ध में मृगापुत्र का वर्णन आया है। जो कर्म दीर्घ कालिकस्थिति लिए होता है, वह दूसरे जन्म में अपना फल देता है । जिस प्रकार वह कर्म किया गया है, वह करने वालों को उसी प्रकार एक बार में या एकाधिक बार में फल देता है, अथवा वह अन्य प्रकार से एक बार में या हजारों बार में व्यस्तक छेदन तथा हाथ पैरों का छेदन आदि के रूप में फल देता है। जो अनाचारी- कुशील प्राणी प्राणियों को बहुत दण्ड देते हैं, पीड़ित करते हैं वे चतुर्गति मय संसार में रहट की तरह बार-बार घूमते रहते हैं । जन्म मरण के चक्र में भटकते रहते हैं और प्रकृष्ट- घोरातिघोर दुःख भोगते हैं । पूर्व जन्म के एक कर्म का फल भोगते हुए जब वे आर्त ध्यान करते हैं तो उसके परिमाम स्वरूप अन्य कर्म बंधते जाते हैं तथा पाप कर्मों का फल भोगना होता है, इसका तात्पर्य यह है कि स्वकृत कर्म फल भोगे बिना नष्ट नहीं होते । इसलिए कहा गया है कि हे जीव ! तुम विषण्ण - विषादयुक्त, विमन, दुर्मन उदास खिन्न तथा दीन एवं दुःखित चित्त मत बनो क्योंकि जो दुःख तुमने पहले औरों के लिए उत्पन्न किया है, वह चिन्ता करने से मिट नहीं सकता, चाहे पाताल में प्रवेश कर जाओ या किसी बीहड़ वन में चले जाओ, या पहाड़ की गुफा में छिप जाओ, अथवा आत्महत्या कर स्वयं मर जाओ तो भी पूर्व जन्म के कर्मों से तुम बच नहीं सकते । इस प्रकार सामान्य तथा कुशीलों का प्रतिपादन किया गया है । अब सूत्रकार पाखण्डियों के सम्बन्ध में बतलाते हैं ।
जे मायरं वा पियरं च हिच्चा, समणव्वए अगणिं समारभिज्जा । अहाहु से लोए कुसील धम्मे, भूताइं जे हिंसति आयसाते ॥५॥
छाया यो मातरं वा पिचरञ्च हित्वा श्रमणव्रतेऽग्निं समारभेत ।
अथाहुः स कुशील धर्मा भूतानि यो हिनस्त्यात्मसाते ॥
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अनुवाद • जो पुरुष माता-पिता का परिहार- त्याग कर श्रमण व्रत स्वीकार कर लेते हैं, फिर अग्निकाय का आरम्भ समारम्भ करते हैं तथा अपनी सुख सुविधा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं, वे कुशील धर्मा हैं, अधर्म सेवी है, सर्वज्ञों ने ऐसा कहा है ।
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