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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीका - ये केचनाविदितपरमार्था धर्मार्थमुत्थिता मातरं पितरं च त्यक्त्वा, मातापित्रोर्दुस्त्यजत्वात् तदुपादानमन्यथा भ्रातृपुत्रादिकमपि त्यक्त्वेति द्रष्टव्यं श्रमणव्रते किल वयं समुपस्थिता इत्येवमभ्युपगभ्याग्निकार्यं समारभन्ते, पचनपाचनादिप्रकारेण कृतकारितानुपत्यौद्देशिकादिपरिभोगाच्चाग्निकायसमारम्भं कुर्युरित्यर्थः, अथेति, वाक्योपन्यासार्थः , 'आहु' रिति तीर्थकृद्गणधरादय एवमुक्तवन्तः यथा सोऽयं पाषण्डिको लोको गृहस्थलोको वाऽग्निकायसमारम्भात् कुशील :- कुत्सितशीलो धर्मो यस्य स कुशीलधर्मा, अयं किम्भूत इति दर्शयति अभूवन् भवन्ति भविष्यन्तीति भूतानि-प्राणिनस्तान्यात्मसुखार्थं 'हिनस्ति' व्यापादयति, तथाहि - पञ्चाग्नितपसा निष्टप्तदेहास्तथाऽग्निहोत्रादिकया च क्रियया पाषण्डिकाः स्वर्गावाप्तिमिच्छन्तीति, तथा लौकिकाः पचनपाचनादिप्रकारेणाग्निकार्यं समारभमाणाः सुखमभिलषन्तीति ॥५॥ अग्निकायसमारम्भे च यथा प्राणातिपातो भवति तथा दर्शयितुमाह
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टीकार्थ जो जीव परमार्थवेत्ता नहीं हैं, धर्माचरण में उद्यत होते हैं, माता-पिता का परित्याग कर हम श्रमण व्रत में अवस्थित हैं ऐसा स्वीकार करते हैं । किन्तु अग्निकाय का आरम्भ समारम्भ करते हैं अर्थात् पचन-पाचन आदि द्वारा कृतकारित अनुमोदित द्वारा उदिष्ट आहार का उपभोग करने हेतु अग्निकाय का आरम्भ करते हैं । वे पाखण्डी या सही माने में गृही लोग अग्निकाय का आरम्भ करने से कुशील है । यहाँ जो मातापिता का त्याग करने का संकेत किया गया है, उसका आशय यह है कि माता-पिता को छोड़ना बड़ा कठिन है । इसलिए यहाँ उनका उल्लेख है । उनके साथ भाई पुत्र आदि को छोड़ना भी यहाँ ज्ञातव्य है । अस्तुः जिसके धर्म का स्वभाव कुत्सित है, वह कुशील कैसे है ? सूत्रकार यह दिग्दर्शन कराते हैं, जो हो चुके हैं, होते हैं एवं जो होंगे, उन्हें भूत कहा जाता है । भूत का आशय प्राणियों से है । अपने सुख के लिए जो प्राणियों की हिंसा करते हैं, वे कुशील है । पाखण्डी जन पंचाग्नि के रूप में तपश्चरण द्वारा अपनी देह को परितप्त करते हैं, तथा अग्नि में हवन आदि क्रियाओं द्वारा स्वर्ग पाने की अभिलाषा करते हैं। लौकिक सांसारिक जन स्वयं भोजन पकाना, दूसरों द्वारा पकवाना आदि के रूप में अग्निकाय का आरम्भ समारम्भ करते हुए सुख की वाञ्छा करते हैं, वे सब कुशील हैं। अग्निकाय के आरम्भ समारम्भ में जिस प्रकार प्राणियों का नाश होता है उसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं ।
उजालो पाण निवातएज्जा, निव्वावओ अगणि निवायवेज्जा ।
तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्मं, ण पंडिए अगणि समारभिज्जा ॥ ६ ॥
छाया
उज्ज्वालकः प्राणान् निपातयेत्, निर्वापकोऽग्निं निपातयेत् । तस्मात्तु मेघावी समीक्ष्य धर्मं न पण्डितोऽग्निं समारभेत् ॥
अनुवाद जो पुरुष आग जलाता है, वह अग्निकाय के जीवों का तथा अन्य जीवों का घात करता है तथा जो आग बुझाता है, वह अग्निकाय के जीवों की घात करता है । अतः मेधावी - प्रज्ञाशील पुरुष अग्निकाय का आरम्भ समारम्भ न करे ।
टीका तपनतापनप्रकाशादिहेतुं काष्ठादिसमारम्भेण योऽग्निकायं समारभते सोऽग्निकायमपरांश्च पृथिव्याद्याश्रितान् स्थावरांस्त्रसांश्च प्राणिनो निपातयेत्, त्रिभ्यो वा मनोवाक्कायेभ्य आयुर्बलेन्द्रियेभ्यो वा पातयेन्निपातयेत् (त्रिपातयेत्), तथाऽग्निकायमुदकादिना 'निर्वापयन् विध्यापंयस्तदाश्रितानन्यांश्च प्राणिनो निपातयेत्रिपातयेद्वा तत्रोज्ज्वालक
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