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थुई अध्य
टीकार्थ - न्याय शास्त्र का यह सिद्धान्त है कि कारण के नष्ट होने से कार्य नष्ट होता है। क्रोध आदि कषाय संसार की स्थिति के कारण हैं अध्यात्म दोष हैं। भगवान महावीर ने इन चारों कषायों का परित्याग कर तीर्थंकर महर्षि पद प्राप्त किया । वास्तव में कोई महर्षि तभी होता है जब ये आध्यात्मिक दोष-चार कषाय विजित हो जाते हैं । ऐसा न होने पर कोई महर्षि नहीं होता । भगवान् स्वयं सावद्य पापयुक्त कर्म न करते हैं और न ओरों से वैसा कराते हैं ।
किरियाकिरियं वेणइयाणुवायं, अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । से सव्ववायं इति वेयइत्ता, उवट्ठिए संजमदीहरायं ॥२७॥
छाया
क्रियाक्रिये वैनयिकानुवाद मज्ञानिकानां प्रतीत्य स्थानम् ।
स सर्ववादमिति वेदायित्वा, उपस्थितः संयमदीर्घरात्रम् ॥
अनुवाद भगवान् क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी एवं अज्ञानवादी इत्यादि सभी मतवादियों के सिद्धान्तों को जानकर यावत् जीवन संयम के पालन में संलग्न रहे ।
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टीका - तथा च भगवान् क्रियावादिनामक्रियावादिनां वैनयिकानामज्ञानिकानां च 'स्थानं' पक्षमभ्युपगतमित्यर्थः, यदिवा- स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानं - दुर्गतिगमानादिकं 'प्रतीत्य' परिच्छिद्य सम्यगवबुध्येत्यर्थः, एतेषां च स्वरूप मुत्तरत्रन्यक्षेण व्याख्यास्यामः, लेशतस्त्विदं - क्रियैव परलोकसाधनायालमित्येवं वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः, तेवां हि दीक्षात एव क्रियारूपाया मोक्ष इत्येवमभ्युपगमः, अक्रियवादिनस्तु ज्ञानवादिनः तेषां हि यथावस्थितवस्तुपरिज्ञानादेवमोक्षः, तथा चोक्तम् -
" पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः । शिखी मुण्डी जटी वापि, सिक्रद्धयते नात्र संशयः ॥१॥"
तथा विनयादेव मोक्ष इत्येवं गोशालकमतानुसारिणो विनयेन चरन्तीति वैनयिका व्यवस्थिता तथाऽज्ञानमेवैहिकामुष्मिकायालमित्येवयज्ञानिका व्यवस्थिताः, इत्येवं रूपं तेषामभ्युपगमं परिच्छिद्यस्वतः सम्यगवगम्य सम्यगवबोधेन, तथा स एव वीरवर्धमानस्वामीं सर्वमन्य मपि बौद्धादिकं यं कञ्चन वादमपरान् सत्त्वान् यथावस्थिततत्त्वोपदेशेन ‘वेदयित्वा' परिज्ञाप्योपस्थितः सम्यगुत्थानेन संयमे व्यवस्थितो न तु यथा अन्ये, तदुक्तम्
“यथापरेषां कथका विदग्धाः, शास्त्राणि कृत्वा लघुतामुपेताः । शिष्यैरनुज्ञामलिनोपचारैर्ववत्तृत्वदोषास्त्वयि ते न सन्ति ॥१॥
इति 'दीर्घरात्रम्' इति यावज्जीवं संयमोत्थानेनोत्थित इति ॥२७॥ अपिच
टीकार्थ भगवान् महावीर ने क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी - इन मतवादियों के सिद्धान्तों को जानकर अथवा ये सभी मतवादी बुरी गति में जाते हैं, यह समझकर आजीवन संयम का पालन किया । इन मतवादियों का स्वरूप आगे विशद् रूप में बतलाया जायेगा । यहाँ अंशतः थोड़ा सा बतलाते हैं-परलोक की सिद्धि हेतु क्रिया ही पर्याप्त है जो ऐसा प्रतिपादन करते हैं उन्हें क्रियावादी कहा जाता है । इनका यह अभिमत है कि क्रिया रूप दीक्षा से ही मोक्ष प्राप्त होता है। अक्रियावादी जो क्रियावाद में विश्वास नहीं करते । जो ज्ञानवादी हैं, उनके मतानुसार पदार्थ का यथार्थ स्वरूप जानने से ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इनका कथन है कि वह पुरुष जो पच्चीस तत्वों को जान लेता है, चाहे वह किसी आश्रम में रहे, चाहे जटा रखे, चाहे सिर मुंडाये रखे, चाहे सिर पर चोटी रखे, मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है ।
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