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थुई अध्य
छाया अनुत्तरं धर्ममुदीरयित्वाऽनुत्तरं ध्यानवरं
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अनुवाद भगवान महावीर अनुत्तर- सर्वश्रेष्ठ धर्म उदीरितकर - व्याख्यात कर अनुत्तर- सर्वोत्तम ध्यान ध्याते थे । उनका ध्यान अत्यन्त शुक्ल पदार्थ के तुल्य दोष रहित-निर्मल, शुक्ल था । वह शंख और चन्द्रमा के सदृश एकांत रूप में अवदात शुद्ध और शुक्ल था ।
ध्यायति ।
सुशुक्ल शुक्लमपगण्ड शुक्लं, शेखेन्दुवदेकान्तावदात शुक्लम् ॥
टीका नास्योत्तर:- प्रधानोऽन्यो धर्मों विद्यते इत्यनुत्तरः तमेवम्भूतं धर्मम् 'उत्' प्राबल्येन 'ईरयित्वा' कथयित्वा प्रकाश्य 'अनुत्तरं' प्रधानं 'ध्यानवरं' ध्यानश्रेष्ठं ध्यायति, तथाहि - उत्पन्नज्ञानो भगवान् योगनिरोध सूक्ष्मं काययोगं निरुन्धन्शुक्लध्यानस्य तृतीयं भेदं सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाताख्यं तथा निरुद्धयोगश्चतुर्थं शुक्लध्यानभेदं व्युपरतक्रियमनिवृत्ताख्यं ध्यायति, एतदेव दर्शयति- सुष्ठु शुक्लवत्शुक्लं ध्यानं तथा अपगतं गण्डम् अपद्रव्यं तदपगण्डं निर्दोषार्जुनसुवर्णवत् शुक्लं यदिवा-अपगण्डम् उदकफेनं तत्तुल्यमिति भावः । तथा शङ्खेन्दुवदेकान्तावदातंशुभ्रं शुक्लं - शुक्लध्यानोत्तरं भेदद्वव्यं ध्यायतीति ॥१६॥ अपि
टीकार्थ - जिससे उत्तर- बढ़कर या श्रेष्ठ दूसरा धर्म नहीं होता, उसे अनुत्तर धर्म कहा जाता है । भगवान महावीर ऐसे धर्म को भली भाँति प्ररूपित कर, प्रकाशित कर उत्तम ध्यान ध्याते थे। भगवान को जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वे योग निरोधकाल में काय योग का निरोध करते हुए शुक्ल ध्यान का तृतीय भेद सूक्ष्मक्रियाप्रतिपात नामक ध्यान में अभिरत होते थे । जब योगों का निरोध हो गया, तब वे शुक्ल ध्यान के चौथे भेद व्युपरतक्रियानिवृत में संलग्न होते थे । शास्त्रकार इसी बात का दिग्दर्शन कराते हुए कहते है - जो ध्यान अत्यन्त उज्ज्वल, निर्मल, स्वच्छ पदार्थ की तरह, शुक्ल की तरह, शुक्ल है, जिससे दोष अपगत है, जो निर्दोष है, सोने के समान शुक्ल-निर्मल है अथवा जो अपगंड-अपद्रव्य रहित जल के फेन-झाग की ज्यों अत्यन्त विशद, निर्मल है, शंख तथा चन्द्र के समान एकांत रूप से अवदात शुभ्र तथा शुक्ल है, वह शुक्ल ध्यान कहा जाता है । भगवान महावीर उसके उक्त दो भेदों की साधना में निरत रहते थे ।
छाया
अणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता । सिद्धिं गते साइमणंतपत्ते, नाणेण सीलेण य दंसणेण ॥१७॥
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अनुत्तराग्र्यां परमां महर्षिरशेष कर्माणि स विशोध्य । सिद्धिं गतः सादिमानन्तप्रज्ञो, ज्ञानेन शीलेन च दर्शनेन ॥
ॐ ॐ ॐ
अनुवाद - महर्षि - महान् ऋषि, महान् द्रष्टा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रभाव से ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्मों को क्षीण कर विध्वंस्त कर उस सर्वोत्तम मुक्ति रूपी सिद्धि को प्राप्त हुए, जिसका आरम्भ तो है, किन्तु अन्त नहीं है ।
टीका - तथाऽसौ भगवान् शैलेश्यवस्थापादितशुक्ल ध्यान चतुर्थभेदानन्तरं साद्यपर्यवसानां सिद्विगतिं पञ्चमीं प्राप्तः, सिद्धिगतिमेव विशिनष्टि- अनुत्तरा चासौ सर्वोत्तमत्वादग्या च लोकाग्रव्यवस्थितत्वादनुत्तराग्यां तां 'परमां ' प्रधानां महर्षिः असावत्यन्तोग्रतपोविशेषनिष्टप्तदेहत्वाद् अशेषं कर्म-ज्ञानावरणादिकं 'विशोध्य' अपनीयं च विशिष्ठेन ज्ञानेन दर्शनेन शीलेन च क्षायिकेन सिद्धिगतिं प्राप्त इतिमीलनीयम् ॥१७॥ पुनरपि दृष्टान्त द्वारेण भगवत: स्तुतिमाह -
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