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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
- क्षत्रियास्तेषां पुत्रः श्री मन्महावीरवर्द्धमानस्वामीत्यर्थः, स च जात्या सर्वजातिमद्भ्यो यशसा अशेषयशस्विभ्यो दर्शनज्ञानाभ्यां सकलदर्शनज्ञानिभ्यः शीलेन समस्तशीलवद्भ्यः श्रेष्ठः - प्रधानः, अक्षरघटना तु जात्यादीनां कृत द्वन्द्वानामतिशायने अर्शआदित्वादच्प्रत्ययविधानेन विधेयेति ॥ १४ ॥ पुनरपि दृष्टान्तद्वारेणैव भगवतोव्यावर्णयाह
टीकार्थ - पहले सुदर्शन - सुमेरु गिरि के यश का वर्णन किया गया है। अब उस यशस्विता को सूत्रकार भगवान महावीर से योजित करते हुए कहते हैं । भगवान को पूर्वोक्त रूप में सुमेरु की उपमा दी गई है । वे भगवान कैसे हैं ? वे तपश्चरण में श्रमशील है - कठोर तपस्याएँ करते हैं अर्थात् तप से जिन्होंने अपने शरीर को परितप्त किया है, जो ज्ञात नामक क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हैं, वे भगवान महावीर मेरु पर्वत के सदृश है। वे जाति में सब जाति युक्त जनों से श्रेष्ठ हैं, यश-कीर्ति में समस्त यशस्वियों-कीर्तिशाली पुरुषों से उत्तम हैं। ज्ञान एवं दर्शन में समग्र जनों से प्रधान हैं - सर्वोच्च हैं तथा शील में वे समस्त शील युक्त जनों से उत्तम हैं। व्याकरण की दृष्टि से यहाँ शब्द योजन इस प्रकार करनी चाहिए। जाति आदि पदार्थों में द्वंद्व समास कर अर्श आदि त्वात् सूत्र से अच् प्रत्यय कर जात्यादि पद को सिद्ध करना चाहिए ।
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गिरीवरे वा निसहाऽऽययाणं, रूयए व सेठ्ठे वलयायताणं । तओवमे से जगभूइपन्ने, मुणीण मज्झे तमुवाहु पन्ने ॥ १५ ॥ छाया गिरिवर इव निषधआयतानां, रुचक इव श्रेष्ठः वलयायतानाम् । तदुपमः स जगद्भूतिप्रज्ञः, मुनीनां मध्ये तमुदाहुः प्रज्ञाः ॥
अनुवाद जैसे आयत - प्रलम्ब-लम्बे पर्वतों में निषद पर्वत श्रेष्ठ है, वलयायत-वर्तुल या गोलाकार पर्वतों में रुचक पर्वत उत्तम है, उसी तरह संसार में सभी मुनियों में भगवान महावीर अनुपम, प्रज्ञाशील और सर्वश्रेष्ठ हैं, यह प्राज्ञजन बतलाते हैं ।
टीकार्थ यथा 'निषधो' गिरिवरो गिरीणामायतानां मध्ये जम्बूद्वीपे अन्येषु वा द्वीपेषु दैर्येण ' श्रेष्ठः ' प्रधानः तथा-वलयायतानां मध्ये रुचकः पर्वतोऽन्येभ्यो वलयायतत्वेन यथा प्रधानः, स हि रुचकद्वीपान्तर्वर्ती मानुषोत्तरपर्वत इव वृत्तायतः सङ्ख्येययोजनानि परिक्षेपेणेति तथा स भगवानपि तदुपमः यथा तावाय तवृत्त ताभ्यां श्रेष्ठौ एवं भगवानपि जगति संसारे भूतिप्रज्ञः प्रभूतज्ञानः प्रज्ञया श्रेष्ठ इत्यर्थः तथा अपरमुनीनां मध्ये प्रकर्षेण जानातीति प्रज्ञः एवं तत्स्वरूपविदः 'उदाहुः' उदाहृतवन्त उक्तवन्त इत्यर्थः ॥ १५ ॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - जम्बूद्वीप में या अन्य द्वीपों में सभी आयताकार - लम्बे पर्वतों में निषद पर्वत श्रेष्ठ है तथा वलयायत-गोलाकार पर्वतों में रूचक पर्वत श्रेष्ठ है । वह रूचक द्वीप के अन्तरवर्ती मानुषोत्तर पर्वत के सदृश वृत्ताकार एवं दीर्घ है, उसका विस्तार संख्येय योजन परिमित है। भगवान महावीर भी ऐसे हैं, अर्थात् जैसे ये दो पर्वत लम्बाई और गोलाई में सर्वोत्तम, सर्वोच्च है, इसी प्रकार भगवान महावीर भी संसार में सभी प्रज्ञाशील जनों में उत्तम हैं, वे सभी मुनियों में श्रेष्ठ हैं। उनके स्वरूप के ज्ञाता बुद्धिमान पुरुषों ने ऐसा कहा है ।
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अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाई । सुसुक्क सुक्कं अपगंडसुक्कं, संखिंदुएगंतवदात सुक्कं ॥ १६ ॥
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