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वीरत्थुई अध्ययनं टीका - यथा शब्दानां मध्ये 'स्तनितं' मेघ गर्जितं तद् 'अनुत्तरं' प्रधानं, तु शब्दो विशेषणार्थः समुच्चयार्थो वा, 'तारकाणांच' नक्षत्राणां मध्ये यथा चन्द्रो महानुभावः सकलजननिर्वृत्तिकारिण्या कान्त्या मनोरमः श्रेष्ठः, 'गन्धेषु' इति गुणगुणिनोरभेदान्मतुब्लोपाद्वागन्धवत्सु मध्ये यथा 'चन्दनं' गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा तज्झाः श्रेष्ठमाहुः एवं 'मुनीनां' महर्षीणां मध्ये भगवन्तं नास्य प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकाशंसिनी विद्यते इत्यप्रतिज्ञस्तमेवम्भूतं श्रेष्ठमाहुरिति ॥१९।। अपि च -
टीकार्थ - सब प्रकार के शब्दों के बीच मेघ की गर्जना-गड़गड़ाहट प्रधान-सबसे बढ़कर है, इस गाथा में 'तु' शब्द विशेषणार्थक या समुच्चयार्थक है । नक्षत्रों में परम आभामय चन्द्रमा प्रधान हैं, जो अपनी कांति द्वारा सबको आनन्द प्रदान करता है । गुण गुणी के अभेद की दृष्टि से गन्धं शब्द यहाँ गन्धवान पदार्थों के अर्थ में है । तदनुसार सभी गन्धयुक्त पदार्थों में गोशीर्ष या मलय चन्दन श्रेष्ठ है, उसी प्रकार मुनियों या महर्षियों के बीच ऐहिक और पारलौकिक सुखाभिवाञ्छा से विवर्जित भगवान महावीर श्रेष्ठ कहे जाते हैं ।
जहा संयभू उदहीण सेढे, नागेषु वा धरणिंदमाहुसेट्ठे । खोओदए वा रसवेजयंते, तवोवहाणे मुणि वेजयंते ॥२०॥ छाया - यथा स्वयम्भू रूदधीना श्रेष्ठः, नगेषु वा धरणेन्द्रं आहुश्रेष्ठं ।
इक्षुरसोदको वा रसवैजयन्तः, तपउपधाने मुनि वैजयन्तः ॥ - अनुवाद - जैसे समग्र सागरों में स्वयंभू रमण सागर श्रेष्ठ है, नागों में धरणेन्द्र उत्तम है, सभी सरस स्थलों में इक्षुरसोदक सागर श्रेष्ठ है, उसी प्रकार समस्त तपश्चरण शील साधकों में भगवान महावीर श्रेष्ठ हैं।
टीका - स्वयं भवन्तीति स्वयम्भुवो-देवाः ते तत्रागत्य रमन्तीति स्वयम्भूरमणः तदेवम् 'उदधीनां' • समुद्राणां मध्ये यथा स्वयम्भूरमणः समुद्रः समस्तद्वीप सागर पर्यन्तवर्ती 'श्रेष्ठः' प्रधानः 'नागेषु च' भवन पतिविशेषेषु 'धरणेन्द्रं' धरणं यथा श्रेष्ठमाहुः, तथा 'खोओदए' इति इक्षुरस इवोदकं यस्य स इक्षुरसोदकः स यथा रसमाश्रित्य 'वैजयन्तः' प्रधानः स्वगुणैपरसमुद्राणां पताकेवोपरिव्यवस्थितः एवं 'तप उपधानेन' विशिष्टतपोविशेषेणमनुते जगतस्त्रिकालवस्थामिति 'मुनिः' भगवान् 'वैजयन्तः' प्रधानः, समस्तलोकस्य महातपसा वैजयन्तीवोपरि व्यवस्थित इति ॥२०॥
टीकार्थ - जो स्वयं उत्पन्न होते हैं, उन्हें स्वयंभू कहा जाता है । देवता स्वयंभू शब्द से अभिहित होते हैं । वे देव वहां आकर रमण करते हैं, अतः वे स्वयंभूरमण कहे जाते हैं । स्वयंभूरमण समुद्र सभी द्वीपों
और समुद्रों के अन्त में विद्यमान हैं । वह समस्त समुद्रों में उत्तम है । नागों में अर्थात् भवनपतियों में धरणेन्द्र श्रेष्ठ हैं । इक्षु के रस के समान जिसका जल मधुर-मीठा है । वह इक्षु रस समुद्र समस्त रस युक्त स्थलों में प्रधान है क्योंकि वह अपनी मधुरता के गुण से सब समुद्रों की पताका-ध्वजा के रूप में विद्यमान है । इसी प्रकार इस जगत की त्रैकालिक अवस्था के परिज्ञाता भगवान् महावीर स्वामी अपने विशिष्ट तपश्चरणमय जीवन के द्वारा समस्त लोक की वैजयन्ती के सदृश सर्वोपरि अवस्थित हैं ।
हत्थीसु एरावणमाहु णाए सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा ।। पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो, निव्वाणवादीणिह णायपुत्ते ॥२१॥
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