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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः पुत्ररहित पुरुष के लिये कोई लोक नहीं है-उसकी सद्गति नहीं होती । ब्राह्मण देवस्वरूप है। कुत्ते यक्ष है । गायों द्वारा जो मारा गया हो या जो गायों की हत्या करता है उसे कोई लोक नहीं मिलता इत्यादि लोकवाद के न्याय युक्ति शून्य मन्तव्यों को सुनना चाहिये । ऐसा कई लोग कहते हैं ।
अपरिमाणं वियाणाई, इहमेगेसि माहियं ।
सव्वत्थ सपरिमाणं, इति धीरोऽतिपासई ॥७॥ छाया - अपरिमाणं विजानाति, इहैकेषा माख्यातम् ।
सर्वत्र सपरिमाणमिति धीरोऽति पश्यति ॥ अनुवाद - कतिपय मतवादियों का मन्तव्य है कि अपरिमाण-परिमाण रहित या अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने वाला कोई एक पुरुष अवश्य है किन्तु वह परिमित पदार्थों को ही जानता है । सबको नहीं जानता। कोई सर्वज्ञ नहीं होता ।
टीका - किञ्च न विद्यते परिमाणम् इयत्ता क्षेत्रत: कालतो वा यस्य तदपरिमाणं, तदेवम्भूतं विजानाति कश्चित्तीर्थिकतीर्थकृत, एतदुक्तम्भवति अपरिमितज्ञोऽसावतीन्द्रियद्रष्टा, न पुनः सर्वज्ञ इति, यदि वा-अपरिमितज्ञ इत्यभिप्रेतार्थातीन्द्रियदर्शीति, तथा चोक्तम्
"सर्व पश्यतु वा मा वा इष्टमर्थन्तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ?"
इति 'इह' अस्मिंल्लोके एकेषां सर्वज्ञापन्हववादिनाम् इदमाख्यातम् अयमभ्युपगमः, तथा सर्वक्षेत्रमाश्रित्य कालं वा परिच्छेद्यं कर्मतापन्नमाश्रित्य सहपरिमाणं-सपरिच्छेदं धी:-बुद्धिः तया राजत इति धीर इत्येवमसौ अतीव पश्यतीत्यतिपश्यति, तथाहि-ते ब्रुवते दिव्यं वर्षसहस्रमसौ ब्रह्मा स्वपिति तस्यामवस्थायां न पश्यत्यसौ तावन्मात्रञ्च कालं जागर्ति तत्र च पश्यत्य साविति, तदेवम्भूतो बहुधा लोकवादः प्रवृत्तः ॥७॥
टीकार्थ - क्षेत्र या काल की दृष्टि से जिसकी कोई सीमा नहीं होती उसे अपरिमाण कहा जाता है। अन्यतीर्थि जिसे तीर्थंकर मानते हैं, वह अपरिमाण-परिमाणरहित या सीमातीत पदार्थों को जानता है । अपरिमाण का अभिप्राय यह है कि वह परिमाण रहित-इंद्रियों द्वारा अग्राह्य-अतीन्द्रिय पदार्थों को देखता है किंतु परिमित रूप में ही । वह सर्वज्ञ नहीं है । दूसरे शब्दों में अन्य तीर्थियों का तीर्थंकर अपरिमित ज्ञानी कहा जाता है पर वह अतीन्द्रिय पदार्थों को ही जो मोक्षादि के लिये उपयोगी है, देखता है । जगत के समस्त पदार्थों को वह नहीं देखता । वे अन्यमतवादी ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि हमारे तीर्थंकर सब पदार्थों को देखे या न देखे, उससे क्या बनता है । ईष्ट-अभिप्सित या उपयोगी अर्थ को ही देखना चाहिये । कीडों की संख्या की गिनती हमारे किस काम की । इस लोक में कोई सर्वज्ञ नहीं है । ऐसा विश्वास करने वाले परमतवादियों का यह सिद्धान्त है । वे कहते हैं कि धीर पुरुष सब देश स्थान-सब समय में परिमित पदार्थों को ही देखता है । वे आगे कहते हैं-ब्रह्मा एक हजार दिव्य वर्ष-देवताओं के वर्ष तक शयन करते हैं । उस अवस्था में वे कुछ नहीं देखते । उतने ही समय तक वे जागृत रहते हैं, तब वे देखते हैं । इस प्रकार लोक अनेक रूपों में प्रवृत
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