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श्री
सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीकार्थ - यहां पर उर्ध्व, अध और तिर्यक् कहकर क्षेत्र प्राणातिपातका क्षेत्रगत हिंसा का ग्रहण किया गया है, जो प्राणी त्रास पाते हैं, त्रस्त होते प्रतीत होते हैं वे त्रस कहे जाते हैं, द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, तथा अपर्याप्त ये उनके भेद हैं, जो प्राणी चलते फिरते नहीं, सदा स्थिर या अडोल रहते हैं। वे स्थावर कहलाते हैं । उन स्तिति शील प्राणियों में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त के रूप में भेद होते हैं, यहां त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा का प्रतिषेध करते हुए द्रव्य प्राणातिपात का ग्रहण किया गया है, सब समय में अर्थात् सभी स्थितियों में प्राणियों की हिंसा नहीं करनी चाहिए, ऐसा प्रतिपादित कर काल एवं भाव के भेद से प्राणातिपात का ग्रहण किया गया है - चवदह जीव स्थान माने गए हैं। उनमें तीनकरण - कृत कारित और अनुमोदित, तीन योग-मन, वचन तथा काय द्वारा प्राणातिपात से जीव हिंसा से निवृत्त हो जाना चाहिए। ऐसा प्रतिपादित कर एक चरण कम दो गाथाओं द्वारा प्राणातिपात आदि मूल गुणों का निरूपण किया गया है। उन समग्र मूलगुणों और उत्तर गुणों का फल प्रतिपादित करने हेतु चतुर्थचरण में कहा है कि कर्म रूप दाह-जलन के उपशम को शांति कहा जाता है। शांति ही निर्वाण या मोक्ष पद हैवहां समस्त दुःख निवृत हो जाते हैं, चरण करण का सम्यक् चारित्र का परिपालन करने वाले साधु को वह अवश्य ही प्राप्त होता है।
समस्त अध्ययन के अर्थ - अभिप्राय का उपसंहार करते हुए कहते हैं ।
इमं च धम्ममादाय, कासवेण वेदितं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥ २१ ॥
छाया
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इमञ्च धर्ममादाय काश्यपेन प्रवेदितम् । कुर्य्याद् भिक्षुग्लनस्याग्लानतया समाहितः ॥
अनुवाद - काश्यप गौत्रीय भगवान महावीर द्वारा प्रवेदित इस धर्म को अंगीकार कर साधु समाधियुक्त रहता हुआ ग्लान- रुग्ण साधु की अग्लान भाव मन में घृणा या ग्लानि न लाते हुए सेवा करे ।
टीका 'इमं च धम्ममि 'त्यादि, 'इम' मिति पूर्वोक्तं मूलोत्तरगुण रूपं श्रुतचारित्राख्यं वा दुर्गतिधारणात् धर्मम् 'आदाय' आचार्योपदेशेन गृहीत्वा किम्भूतमितितदेव विशिनष्टि - 'काश्यपेन' श्री मन्महावीरवर्धमानस्वामिनासमुत्पन्नदिव्यज्ञानेन भव्यसत्त्वाभ्युद्धरणाभिलाषिणा 'प्रवेदितम्' आख्यातं समधिगम्य 'भिक्षुः ' साधुः परीषहोपसगैरतर्जितो ग्लानस्यापरस्य साधोर्वैयावृत्त्यं कुर्यात्, कथमिति ? स्वतोऽग्लानतया यथाशक्ति 'समाहित' इति समाधिं प्राप्तः, इदमुक्तं भवति - कृतकृत्योऽहमिति मन्यमानो वैयावृत्त्यादिकं कुर्यादिति ।
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टीकार्थ साधु मूल गुणात्मक तथा उत्तर गुणमय श्रुतचारित्र रूप तथा दुर्गति निवारक धर्म को आचार्य
गुरु के उपदेश से ग्रहण कर रुग्ण साधु का वैया वृत्य करे । वह धर्म कैसा है ? यह प्रतिपादित करने हेतु उसकी विशेषता दिखलाते हैं। जिन्हें दिव्य ज्ञान उत्पन्न हुआ उन प्रभु महावीर, वर्धमान ने इस धर्म को प्रवेदित किया - आख्यात किया, इसे समाधिगत प्राप्त कर साधु परीषहों और उपसर्गों से व्यथित - अधीर न होता हुआ अन्य रुग्ण साधु का वैयावृत्य-सेवा करे। किस प्रकार करे ? यह बतलाते हैं- स्वयं अग्लान भाव से स्वयं ग्लान न होते हुए, घृणा न करते हुए यथाशक्ति समाधिस्थ - आत्मस्थ होता हुआ वैसा करे। कहने का आशय यह
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