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। स्त्री परिज्ञाध्ययनं करिष्याम्यहं 'रूक्ष' मिति संयम, मौनमिति वा क्कचित्पाठः तत्र मुनेरयं मौनः-संयमस्तमाचरिष्यामि, धर्ममाचक्ष्व 'णे' त्ति अस्माकं हे भयत्रातः !, यथाऽहमेवं दुखानां भाजनं न भवामि तथा धर्ममावेदयेति ॥२५॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - कोई नवयुवती तरह-तरह के वस्त्रों और गहनों से अपनी देह को सजाकर छल-पूर्वक साधु से कहे कि गृहस्थ जीवन से मुझे वैराग्य हो गया है, मेरा पति मेरे अनुकूल नहीं है-मेरे कहे अनुसार नहीं चलता अथवा मैं उसे पसन्द नहीं करती अथवा उसने मेरा परित्याग कर दिया है । अत: मैं संयम का पालन करूँगी। कहीं मौनम पाठ प्राप्त होता है । मुनि के भाव को मौन कहा जाता है उसका आशय संयम से है । वह स्त्री कहती है मैं मौन-संयम का धर्म का परिपालन करूंगी। इसलिए संसार के आवागमन के भय से छुटकारा दिलाने वाले साधु तुम मुझे धर्म सुनाओ, धर्म की शिक्षा दो जिनसे मैं सांसारिक दुःखों की भाजन-पात्र न बन सकूँ ।
अदु साविया पवाएणं, अहमंसि साहम्मिणी य समणाणं । जतुकुंभे जहा उवज्जोई संवासे विदू विसीएज्जा ॥२६॥ छाया - अथ श्राविका प्रवादेन, अहमस्सि साधर्मिणी श्रमणानाम् ।
जतुकुम्मः यथा उपज्योति, संवासे विद्वान् विषीदेत ॥ अनुवाद - स्त्री श्राविका-श्रमणिकोपासिका होने का बहाना बनाकर यह कहकर कि मैं साधर्मिकासद्धर्माचरणशीला हूँ, साधु के समीप आती है । जैसे अग्नि के पास रखा हुआ जलकुम्भ लाख का घड़ा गल जाता है उसी प्रकार स्त्री के संग से, सहचर्य से विद्वान पुरुष भी, विज्ञ साधु भी विषाद प्राप्त करता है, अपने पथ से विचलित हो जाता है ।
टीका - अथवानेन "प्रवादेन" व्याजेत साध्वन्तिकं योषिदुपसर्पेत्-यथाऽहं श्राविकेतिकृत्वा युष्माकं श्रमणानां साधर्मिणीत्येवं प्रपञ्चेन नेदीयसी भूत्वा कूलवालुकमिव साधु धर्माद्भशयति, एतदुक्तं भवति-योषित्सान्निध्यं ब्रह्मचारिणो महतेऽनय, तथा चोक्तम् -:
"तज्ज्ञानं, तच्च विज्ञानं, तत्तपः स च संयमः । सर्वमेकपदे भ्रष्टं, सर्वथा किमपि स्त्रियः ॥१॥"
अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तमाह-यथा जातुषः कुम्भो 'ज्योतिषः'अग्नेः समीपे व्यवस्थित उपज्योतिर्वर्ती विलीयते' द्रवति, एवं योषितां 'संवासे' सान्निध्ये विद्वानपि आस्तां तावदितरो योऽपि विदितवेद्योऽसावपि धर्मानुष्ठानं प्रति 'विषीदेत' शीतलविहारी भवेदिति ॥२६॥ एवं तावत्स्त्रीसान्निध्ये दोषान् प्रदर्श्यतत्सं स्पर्शजं दोषं दर्शयितुमाह
टीकार्थ - कोई स्त्री यह बहाना बनाकर कि मैं श्राविका हूँ-श्रावक व्रतों का पालन करती हूँ साधुओं कि साधर्मिका हूँ, उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म का पालन करती हूँ, साधु के समीप आती है, ऐसा प्रपंच जाल रचकर, वह साधु के सम्पर्क में आकर कूलवालुकि ज्यों उसको धर्म से भ्रष्ट, पतित कर देती है । कहने का अभिप्राय यह है कि स्त्री का सान्निध्य सम्पर्क ब्रह्मचारियों के लिए घोर अनर्थ जनक है । कहा भी है स्त्रियों के सम्पर्क में आते ही ज्ञान-विज्ञान तप, संयम यह सभी एक ही साथ नष्ट हो जाते हैं । इस सम्बन्ध में सूत्रकार एक दृष्टान्त देकर बताते हैं-जैसे लाख का घड़ा आग के पास रखे जाने पर गल जाता है उसी तरह स्त्री के समवास या सानिध्य में रहने से विद्वान पुरुष भी जो जानने योग्य पदार्थों को जानता है, धर्माचरण में, संयम परिपालन में शिथिल विहारी हो जाता है- ढीला पड़ जाता है, दूसरे किसी की तो बात ही क्या ?
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