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ध्ययनं
_वीरत्थुई अध्ययनं षष्ठम् वीरत्युई अध्ययन
पुच्छिस्सु णं समणा माहणा य, अगारिणो या परतित्थिआ य । से केइ णेगंतहियं धम्ममाहु, अणेलिसं साहु समिक्खयाए ॥१॥ छाया - अप्राक्षुः श्रमणाः ब्राह्मणाश्च, अगारिणो ये परतीर्थिकाश्च ।
स क एकान्तहितं धर्ममाह, अनीदृशं साधुसमीक्षया ॥ अनुवाद - श्रमण, ब्राह्मण, गृहस्थ तथा परतीर्थिक जनों ने पूछा-जिज्ञासा की कि एकान्त रूप से कल्याणकारी, अनुपम जिसके सदृश कोई अन्य न हो, धर्म का जिसने भली भाँति समीक्षापूर्वक निरूपण किया हो, वे कौन हैं ।
टीका- अस्य चानन्तरसूत्रेण सहायं सम्बन्धः तद्यथा-तीर्थकरोपदिष्टेन मार्गेण ध्रुवमाचरन् मृत्युकालमुपेक्षेतेत्युक्तं, तत्र किम्भूतोऽसौ तीर्थकृत् येनोपदिष्टो मार्ग इत्थेतत् पृष्टवन्तः 'श्रमणा' यतय इत्यादि, परस्पर सूत्रसम्बन्धस्तु बुद्धयेत यदुक्तं प्रागिति, एतच्च यदुत्तरत्र प्रश्नप्रतिवचनं वक्ष्यते तच्च बुद्धयेतेति, अनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्य सूत्रस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या प्रतन्यते, सा चेयम्-अनन्तरोक्तां बहुविधां नरकविभक्तिं श्रुत्वा संसारादुद्विग्नमनसः केनेयं प्रतिपादितेत्येतत् सुधर्मस्वाभिनम् 'अप्राक्षुः' पृष्ठवन्तः 'णम्' इति वाक्यालङ्कारे यदिवा जम्बू स्वामी सुधर्मस्वामिनमेवाह-यथा केनैवंभूतो धर्मः संसारोत्तारणसमर्थः प्रतिपादित इत्येतद्बहवो मां पृष्टवन्तः, तद्यथा'श्रमणा' निर्ग्रन्यादायः तथा 'ब्राह्मणा' ब्रह्मचर्याद्यनुष्ठाननिरताः तथा 'अगारिणः' क्षत्रियादयो ये च शाक्यादयः परतीर्थिकास्ते सर्वेऽपि पृष्टवन्तः, किं तदिति दर्शयति-स को योऽसावेनं धर्धं दुर्गति प्रसृतजन्तुधारकमेकान्तहितम् 'आह' उक्तवान् ‘अनीदृशम्' अनन्यसदृशम् अतुलमित्यर्थः, तथा-साध्वी चासौ समीक्षा च साधुसमीक्षायथावस्थिततत्त्वपरिच्छित्तिस्तया, यदिवा-साधु समीक्षया-समतयोक्तवानिति ॥१॥ तथा तस्यैव ज्ञानादिगुणावगतये प्रश्नमाह -
टीकार्थ - इस सूत्र का अनन्तर सूत्र के साथ सम्बन्ध इस प्रकार है । पूर्व सूत्र में यह वर्णित हुआ है कि तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित मार्ग के अनुरूप संयम का प्रतिपालन करते हुए बुद्धिमान पुरुष को मृत्युकाल की आकांक्षा करनी चाहिए । यहाँ यह जिज्ञासित होता है कि वे तीर्थंकर कैसे है, जिन्होंने मोक्ष मार्ग का निरूपण किया । श्रमण आदि प्राश्निकों ने यह पूछा । परम्पर सूत्र के साथ यहाँ यह सम्बन्ध है । पहले सूत्र में कहा है कि जीव को बोध प्राप्त करना चाहिए । आगे चलकर जो उत्तर दिया जायेगा, उसे समझना चाहिए । इस सम्बन्ध से आयात इस सूत्र की संहिता आदि के क्रम से व्याख्या की जाती है, जो इस प्रकार है -
___ पहले जो बहुविध अनेक प्रकार की नरक विभक्ति-नरकों का विश्लेषण किया गया है, उसे सुनकर सांसारिक आवागमन से घबराए हुए पुरुषों ने श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया कि यह नरक विवेचन किसके द्वारा किया गया है । यहाँ णं शब्द वाक्यालंकार के अर्थ में आया है, अथवा श्री जम्बूस्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से कहते हैं, पूछते हैं कि-जो संसार से पार लगाने में समर्थ है, वह धर्म किसने प्रतिपादित किया ? यह प्रश्न बहुत से जनों ने मुझसे पूछा है । श्रमण-निर्ग्रन्थ मुनि आदि, ब्राह्मण-ब्रह्मचर्य आदि के परिपालन में तत्पर, अगारीक्षत्रिय आदि गृहस्थ तथा बौद्ध आदि परमतानुयायी इन सभी ने मझसे पछा है । क्या पछा है ? यह बतलाते
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