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थुई अध्यय
अनुवाद आशुप्रज्ञ - त्वरित बुद्धिशील, काश्यप गौत्रीय भगवान श्री महावीर, भगवान श्री ऋषभादि तीर्थंकरों के द्वारा प्रणीत उत्तम धर्म के नेता - वर्तमान युग में उपदेष्टा हैं । जैसे देवलोक में इन्द्र सब देवों में श्रेष्ठ है, इसी प्रकार भगवान महावीर इस जगत में सर्वश्रेष्ठ हैं ।
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टीका
नास्योन्तरोऽस्तीन्यनुत्तरस्तमिममनुतरं धर्मं 'जिनानाम्' ऋषभादितीर्थकृतां सम्बन्धिनमयं 'मुनिः' श्रीमान् वर्धमानाख्य: 'काश्यप' गोत्रेण' आशुप्रज्ञः 'केवलज्ञानी उत्पन्नदिव्यज्ञानो 'नेता' प्रणेतेति, ताच्छीलिकस्तृन् तद्योगे नं लोकाव्ययनिष्ठे ( पा. २ - ३ - ६९) त्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद्धर्ममित्यत्र कर्मणि द्वितीयैव, तथा चेन्द्रो 'दिवि ' स्वर्गे देवसहस्त्राणां‘महानुभावो 'महाप्रभाववान्' णम' इति वाक्यालङ्कारे तथा नेता' प्रणायको 'विशिष्टो रूपबलवर्णादिभिः प्रधानः एवं भगवानपि सर्वेभ्यो विशिष्टः प्रणायकोमहानुभावश्चेति ||७|| अपिच
टीकार्थ - केवल ज्ञान संपन्न, काश्यप गौत्रोत्पन्ना भगवान महावीर अनुत्तर- जिससे बढ़कर कोई नहीं है, सर्वोत्तम, भगवान ऋषभ आदि तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत धर्म के नेता हैं। वर्तमान युग में उपदेष्टा हैं । यहाँ नेता शब्द में ताच्छील्यार्थक तृण प्रत्यय हुआ है । अतः उसके योग में 'न लोकाव्यय निष्ठा खलर्थतृनाम्' इत्यादि सूत्र द्वारा षष्ठी का प्रतिषेध होने से धर्म पद में कर्मणि द्वितीया हुई है ।
स्वर्ग लोक में जिस प्रकार इन्द्र सहस्त्रों देवों में महानुभाव - महाप्रभाववान है, सब का नेता है, रूप पराक्रम वर्ण आदि में सब से प्रधान - सर्वश्रेष्ठ है । उसी प्रकार भगवान महावीर सर्वश्रेष्ठ, सबके नायक, सर्वाधिक प्रभावशाली हैं । यहाँ णं शब्द वाक्यालंकार में आया है, यह ज्ञातव्य है ।
से पन्नया अक्खयसागरे वा, महोदहीवाविअनंतपारे । अणाइले वा अकसाइ भुक्के, सक्केव देवाहिइव जुइमं ॥८॥
छाया स प्रज्ञयाऽक्षयः सागर इव, महोदधिरिवानन्तपारः ।
अनाविलो वा अकसायिमुक्तः, शुक्रइव देवाधिपतिर्द्युतिमान् ॥
अनुवाद भगवान सागर की ज्यों अक्षय-अविनश्वर प्रज्ञा के धनी हैं उनकी प्रज्ञा स्वयंभू रमण समुद्र
के समान अपार है । जैसे उस समुद्र का जल निर्मल है, उसी प्रकार भगवान महावीर की प्रज्ञा निर्मल - विकार रहित है । भगवान कषायों से विमुक्त हैं । वे देवताओं के अधिपति इन्द्र के सदृश हैं। बड़े दितिमान - प्रतापशाली
हैं ।
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टीका असौ भगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा तया 'अक्षयः' न तस्य ज्ञातव्येऽर्थेबुद्धि प्रतिक्षीयते प्रतिहन्यते वा, तस्यहि बुद्धिः केवलज्ञानाख्या, सा च साद्यपर्यवसारनाकालतो द्रव्यक्षेत्रभावैरप्यनन्ता, सर्वसाम्येन दृष्टान्ताभावाद्, एकदेशेन त्वाह-यथा 'सागर' इति, अस्य चाविशिष्टत्वात् विशेषणमाह-'महोदधिरिव' स्वयम्भूरमण इवानन्तपारः यथाऽसौ विस्तीर्णो गम्भीरजलोऽक्षोभ्यश्च, एवं तस्यापि भगवतो विस्तीर्णा प्रज्ञा स्वयम्भूरमणानन्तगुणा गम्भीराऽक्षोभ्या च, यथा च असौ सागर: 'अनाविल: 'अकलुषजल:, एवं भगवानपि तथाविधकर्मलेशा भावादकलुषज्ञान इति, तथा कषाया विद्यन्ते यस्यासौ कषायी न कषायी अकषायी, तथा ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्धनाद्वियुक्तो मुक्तः भिक्षुरिति क्वचित्पाठः तस्यायमर्थ:- सत्यपि निःशेषान्तरायक्षये सर्वलोकपूज्यत्वे च तथापि भिक्षामात्रजीवित्वात् भिक्षुरेवासौ, नाक्षीणमहानसादिलब्धिमुप जीवतीति, तथा शक्रइव - देवाधिपतिः 'द्युतिमान् ' दीप्तिमानिति ॥८॥ किञ्च
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