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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीकार्थ - जिसके द्वारा पदार्थों को जाना जाता है उसे प्रज्ञा कहा जाता है । भगवान महावीर प्रज्ञा की दृष्टि से अक्षय हैं । जो पदार्थ ज्ञेय है-जानने योग्य है, उसमें भगवान की बुद्धि क्षय को प्राप्त नहीं होती, प्रतिहत नहीं होती । किसी के द्वारा अवरुद्ध नहीं होती । उनकी बुद्धि का नाम केवल ज्ञान-सर्वज्ञत्व है । वह केवल-ज्ञान काल की दृष्टि से सादी आदि सहित और अनन्त-अन्तरहित है । द्रव्य, क्षेत्र एवं भाव की दृष्टि से अनन्त है । सम्पूर्ण रूप में उसकी समानता या तुल्यता का कोई उदाहरण नहीं मिलता । ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो सम्पूर्ण रूप में उसके समान हो, जिससे उसे उपमित किया जा सके । सूत्रकार एक देशीय-आंशिक दृष्टान्त देते है । समुद्र जिस प्रकार अक्षय जल युक्त होता है उसी प्रकार भगवान अक्षय ज्ञान युक्त हैं । समुद्र शब्द साधारण सागर का बोधक है । इसलिए उसके विशेषण-एक विशेष समुद्र की चर्चा करते हैं । जिस प्रकार स्वयं भू रमण नामक समुद्र अपार विशाल तथा गम्भीर, अत्यन्त गहरे जल से युक्त है तथा अक्षोभ्य हैक्षब्ध नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार भगवान महावीर की प्रज्ञा-ज्ञान भी विस्तीर्ण तथा स्वयं भू रमण समुद्र से भी अत्यन्त अनन्त गुना गम्भीर गहरा तथा अक्षोभ्य है । जिस प्रकार स्वयं भू रमण का जल निर्मल-स्वच्च है उसी प्रकार भगवान का ज्ञान भी लेश मात्र कर्म के अवशिष्ट न रहने के कारण निर्मल-निर्विकार शुद्ध है। जिसमें कषाय होते हैं, उसे कसाई या कषायवान कहते हैं । परन्तु भगवान कषाय वर्जित थे । अत: वे अकषाई थे । उनके ज्ञानावर्णीय आदि कर्मबन्ध नष्ट हो चुके थे, इसलिए वे मुक्त थे । कहीं भिक्खू-भिक्षु पाठ प्राप्त होता है। उसका अभिप्राय यह है कि भगवान के सभी अन्तराय-बाधक हेत नष्ट हो चके थे। वे समग्र संसार के पूज्य थे । ऐसा होते हुए भी भिक्षावृत्ति द्वारा अपना निर्वाह करते थे वे अक्षीण महानसादि-यथेच्छ भोज्यादि प्राप्त कराने में सक्षम, लब्धि-योग विभूति का उपयोग नहीं करते थे। भगवान इन्द्र की तरह देवताओं के अधिपति थे, दीतिमान-दीप्तिमान थे ।
'से' वीरिएणं पडिपुन्नवीरिए, सुदंसणे वा णगसव्वसेठे ।
सुरालए वासिमुदागरे से, विरायए णेगगुणो ववेए ॥९॥ छाया - स वीर्येण प्रतिपूर्णवीर्यः सुदर्शन इव नगसर्वश्रेष्ठः ।
सुरालयो वासिमुदाकरः स, विराजतेऽनेकगुणोपयेतः ॥ अनुवाद - भगवान् महावीर पूर्ण वीर्य-सम्पूर्ण आत्म पराक्रम युक्त हैं । पर्वतों में जिस प्रकार सुमेरु पर्वत सर्वश्रेष्ठ है, वे जगत में सर्वश्रेष्ठ-उत्तम हैं । देवताओं के लिए हर्षोत्पाद स्वर्ग की ज्यों वे अनेक उत्तमोत्तम गुणों से युक्त हैं।
टीका - 'स' भगवान् ‘वीर्येण' औरसेन बलेन धृतिसंहनवादिभिश्च वीर्यान्तरायस्य नि:शेषतः क्षयात् . प्रतिपूर्णवीर्यः, तथा 'सुदर्शनो' मेरुजम्बूद्वीप नाभिभूतः स यथा नगानां-पर्वतानां सर्वेषां श्रेष्ठ:- प्रधानः तथा भगवानपि वीर्येणान्यैश्च गुणैः सर्वश्रेष्ठ इति, तथा यथा 'सुरालयः' स्वर्गस्तन्निवासिनां 'मुदाकरो' हर्षजनक: प्रशस्तवर्णरसगन्धस्पर्शप्रभावादिर्भिर्गुणैरुपेतो 'विराजते' शोभते, एवं भगवानप्यनेकैर्गुणैरूपेतो विराजत इति, यदिवायथा त्रिदशालयो मुदाकरोऽनेकैर्गुणैकपेतो विराजत इति एवमसावपि मेरुरिति ।।९।। पुनरपि दृष्टान्त भूतमेरुवर्णनायाह
टीकार्थ – वीर्यान्तराय कर्म के सम्पूर्ण रूप में क्षीण हो जाने से भगवान ओरस बल, घृती एवं संहननविशेष देहिक रचना आदि बलों से परिपूर्ण हैं । सुमेरु पर्वत जो जम्बू द्वीप की नाभि के सदृश है । जिस प्रकार
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