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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
उड्ढं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । से णिच्चणिच्चेहिं समिक्ख पन्ने, दीवेव धम्मं समियं उदाहु ॥४॥
छाया ऊर्ध्व मधस्तिर्य्यग्दिशासु, त्रसाश्च ये स्थावरा ये च प्राणाः । स नित्यानित्याभ्यां प्रसमीक्ष्य प्रज्ञः, दीपइव धर्मं समितमुदाह ॥
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अनुवाद केवल ज्ञान सम्पन्न भगवान् महावीर ने ऊर्ध्व, अध और तिर्यक्, दिशाओं में विद्यमान स और स्थावर प्राणियों की नित्य और अनित्य दोनों प्रकार से समीक्षा कर दीपक के समान पदार्थ को प्रकाशित करने वाले धर्म का प्रतिपादन किया ।
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टीका ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्षु सर्वत्रैव चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके ये केचन त्रस्यन्तीति त्रसास्तेजोवायु रूपविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात् त्रिधा, तथा ये च 'स्थावराः' पृथिव्यम्बुवनस्पतिभेदात् त्रिविधा, एते उच्छ वासादयः प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिन इति अनेन च शाक्यादिमतनिरासेन पृथिव्याद्येकेन्द्रियाणामपि जीवत्वमावेदितं भवति, स भगवांस्तान् प्राणिन: प्रकर्षेण केवलज्ञानित्वात् जानातीति प्रज्ञ: (ग्रन्थाग्रम् ४२५० ) स एव प्राज्ञो नित्यानित्याभ्यां द्रव्यार्थपर्यायार्थाश्रयात् 'समीक्ष्य' केवलज्ञानेनार्थान् परिज्ञाय प्रज्ञापनायोग्या नाहेत्युत्तरेण सम्बन्धः तथा स प्राणिनां पदार्थाविर्भावनेन दीपवत् दीपः यदिवा-संसारार्णव पतितानां सदुपदेशप्रदानत आश्वासहेतुत्वात् द्वीप इवद्वीप:, स एवम्भूतः संसारोत्तारण समर्थं 'धर्मं ' श्रुतचारित्राख्यं सम्यक् इतं गतंसदनुष्ठानतया रागद्वेषरहितत्वेन समतया वा, तथा चोक्तम्
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" जहां पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ " इत्यादि, समं वा धर्मम् उत्- प्राब्ल्येन आह-उक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थं न पूजासत्कारार्थमिति ॥४॥ किञ्चान्यात्
टीकार्थ
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अब श्री सुधर्मास्वामी भगवान् महावीर के गुणों का वर्णन करने हेतु कहते हैं- उर्ध्व, अध तिर्यक् दिशाओं में चतुर्दश रज्जु परिमित इस लोक में रहने वाले तेजो रूप और वायु रूप विकलेन्द्रिय एवं पञ्चेन्द्रिय भेद युक्त तीन प्रकार के त्रस प्राणी हैं। पृथ्वी, जल और वनस्पति के रूप में तीन प्रकार के स्थावर प्राणी है, इनके उच्छ्वास आदि प्राण होते हैं । इसलिए ये प्राणी कहे जाते हैं । इस प्रतिपादन द्वारा शाक्य - बौद्ध आदि सिद्धान्तों का खण्डन करते हुए पृथ्वी आदि एक इन्द्रिय युक्त प्राणियों को भी जीव कहा है । केवलज्ञानी होने के कारण भगवान इन प्राणियों को जानते हैं । इसलिए वे प्रज्ञ है । जो प्रज्ञ हैं उसी को प्राज्ञ कहा जाता है । भगवान् ने केवल ज्ञान द्वारा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय का आश्रय लेकर समस्त पदार्थों को जानकर जो प्राणी सुलभ बोधि है, उनको उदिष्ट कर धर्म का कथन किया है। यह आगे के विवेचन के साथ संबद्ध कर लेना चाहिए। भगवान प्राणियों के लिए पदार्थों का स्वरूप प्रकट - उजागर करने से दीपक के सदृश हैं । इसलिए वे दीप हैं । उनको दीप के रूप में अभिहित किया है, अथवा संसार रूपी समुद्र में प्रपतित प्राणियों को सद्ज्ञान के उपदेश द्वारा विश्राम देते हैं । इसलिए वे समुद्र में विद्यमान द्वीप के समान हैं, जो लोगों के लिए विश्राम स्थल होता है। ऐसे विशिष्ट गुण युक्त भगवान् ने संसार से उद्धार करने में समस्त श्रुत चारित्र मूलक धर्म का आख्यान किया है । भगवान ने उक्त धर्म को सद् अनुष्ठान, तदनुरूप सदुद्यम शील होकर अथवा राग और द्वेष से विवर्जित होकर अथवा समत्व भाव के साथ बड़ा जोर देकर कहा है । अतएव कहा गया है- जैसे पुण्य - पुण्यात्मा धनी को धर्म का उपदेश करे। उसी तरह तुच्छ निर्धन को भी धर्म का उपदेश करे । भगवान् ने प्राणियों पर अनुग्रह कर कृपा कर धर्म का प्रतिपादन किया है। पूजा सत्कार मान सम्मान आदि के लिए नहीं ।
ॐ ॐ ॐ
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