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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् संवासं परित्यजेत्, स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता शय्ये' तिवचनात्, तथा स्वकीयेन पाणिना' हस्तेनावाच्यस्य नणिलिज्जेज' त्ति न सम्बाधनं कुर्यात्, यतस्तदपि हस्तसम्बाधनं चारित्रं शबलीकरोति, यदिवा स्त्रीपश्वादिकं स्वेन पाणिना न स्पृशेदिति ॥२०॥ अपिच -
टीकार्थ - जैसा पहले कहा गया है- स्त्रियों की विज्ञापना या अभ्यर्थना पर उनके साथ संस्तवपरिचय बढ़ाना, उनके साथ सम्पर्क करना, रहना भय का कारण है । अतएव वह भय है । स्त्री सम्पर्क असद् अनुष्ठान-अशुभ कर्म का कारण है । इसलिए वह अश्रेयस्कर-अकल्याणकारी है । यह जानकर काम भोग के विपाक-क्लेशप्रद फल को जानने वाले साधु को अपने आपको स्त्री के सम्पर्क से रोककर-दूर हटाकर, सन्मार्ग में स्थापित कर जो कार्य करना चाहिए, सूत्रकार उसका दिग्दर्शन कराते हैं-स्त्री नरक को ले जाने का मार्ग है । साधु उसका तथा पशु का आश्रय न लेवे अर्थात् उनके साथ संवास न करे । साधु की शैय्या, स्त्री, पशु तथा नपुंसक से रहित होनी चाहिए, ऐसा शास्त्र का वचन है । वह अपने हाथ से गुह्यन्द्रिय का संवाधन न करे । ऐसा करने से चारित्र विकृत होता है । वह स्त्री पशु आदि का अपने हाथ से संस्पर्श न करे ।
सुविसुद्धलेसे मेहावी, परकिरिअं च वजए नाणी । मणसा वयसा कायेणं सव्व फाससहे अणगारे ॥२१॥ छाया - सुविशुद्धलेश्यः मेघावी परिक्रियाञ्च वर्जयेदज्ञानी ।
मनसा वचसा कायेन सर्व स्पर्श सहोऽनगारः ॥ अनुवाद - विशुद्ध चित्त युक्त मेधावी-प्रज्ञाशील, ज्ञानी विवेक युक्त साधु, मन वचन और कर्म द्वारा किसी दूसरे की क्रिया का वर्जन-परित्याग करे, जो पुरुष सभी शीत, उष्ण आदि स्पर्शों को-सर्दी गर्मी को सहन करता है, वह साधु है ।
टीका - सुष्टु-विशेषेण शुद्धा-स्त्री सम्पर्क परिहार रूप तया निष्कलङ्का लेश्या-अन्त:करणवृत्तिर्यस्य स तथा स एवम्भूतो 'मेघावी' मर्यादावर्ती परस्मैस्त्र्यादिपदार्थाय क्रिया परक्रिया-विषयोपभोगद्वारेण परोपकारकरणं परेण वाऽऽत्मनः संबाधनादिका क्रिया परक्रिया तां च 'ज्ञानी' विदितवेद्यो 'वर्जयेत्' परिहरेत्, एतदुक्तं भवतिविषयोपभोगोपाधिना नान्यस्य किमपि कुर्यान्नाप्यात्मनः स्त्रिया पादधावनादिकमपि कारयेत्, एतच्च परक्रियावर्जनं मनसा वचसा कायेन वर्जयेत्, तथाहि-औदारिककामभोगार्थं मनसा न गच्छति नान्यं गमयति गच्छन्तमपरं नानुजानीते एवं वाचा कायेन च, सर्वेऽप्यौदारिके नव भेदाः, एवं दिव्येऽपि नव भेदाः, ततश्चाष्टादशभेदभिन्नमपि ब्रह्म विभृयात्, यथा च स्त्रीस्पर्शपरीषहः सोढव्य एवं सर्वानपि शीतोष्णदंशमशकतृणादि स्पर्शानधिसहेत, एवं च सर्वस्पर्शसहोऽनगारः साधुर्भवतीति ॥२१॥ क एवमाहेति दर्शयति -
टीकार्थ – जिसके चित्त की वृत्ति स्त्री संसर्ग त्याग के कारण निष्कलंक-दोषरहित है, शुद्ध है, जो अपनी मर्यादाओं में टिका हुआ है, ऐसा ज्ञानवान पुरुष परक्रिया न करे । स्त्री आदि के लिए जो क्रिया की जाती है, उसे परक्रिया कहते हैं । विषय भोगों के साधन देकर, विषयोपभोग करवाकर जो दूसरे का उपकार उसके मनोनुकूल किया जाता है । दूसरे के द्वारा अपना शरीर आदि दबवाना भी परक्रिया है । ज्ञानी पुरुष इनका वर्जन करे । कहने का तात्पर्य यह है कि विषयोपभोग की सामग्री देकर ज्ञानवान पुरुष दूसरे को कुछ भी
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