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स्त्री परिज्ञाध्ययनं
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सहयोग न करे, स्त्री आदि द्वारा अपने पैरों का प्रक्षालन न करवाये, वैसी सेवा न ले । साधु मन वचन एवं शरीर तीनों द्वारा परक्रिया का परित्याग करे । औदारिक काम भोग हेतु मन से भी न जाये मन में भी वैसा न लाये, तथा अन्य को भी मन में न भेजे जाते हुए को अच्छा न समझे, वाणी और देह से भी वैसा न करे, यह समझना चाहिए । औदारिक काम भोग के नौ प्रकार हैं, दिव्य-देव सम्बन्धी काम भोग के भी नौ प्रकार हैं-साधु अठारह प्रकार से ब्रह्मचर्य धारण करे, पालन करे । साधु जिस प्रकार स्त्री स्पर्श परीषह को सहन करे, उसी प्रकार सर्दी, गर्मी, डांस, मच्छर तथा तृण आदि सभी स्पर्शो को सहन करे । इस प्रकार समस्त स्पर्शो को जो सहन करता है, वह अनगार- साधु होता है । किसने यह कहा- ऐसा दिग्दर्शन कराते हैं ।
धुअमोहे से भिक्खू ।
इच्चेवमाहु से वीरे, धुअरए तम्हा अज्झत्थविसुद्धे, सुविमुक्के आमोक्खाए परिवज्जासि ॥ २२ ॥ त्तिबेमि इत्येवमाहुः स वीरः धुतरजाः धुतमोहः स भिक्षुः ।
तस्मादात्मविशुद्धः सुविप्रमुक्तः आमोक्षाय परिव्रजेदिति ॥ ब्रवीमि ॥
छाया
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ॐ ॐ ॐ
अनुवाद - जिन्होंने समस्त कर्मों को मिटा दिया, मोह को ध्वंस्त कर दिया, यों जो वीतराग अवस्था में संस्थित हुए उन प्रभु महावीर ने ये पूर्वोक्त बातें कही है। इसलिए आत्मविशुद्ध-शुद्ध आत्म भावयुक्त सुविप्रमुक्तविषयवासनादि समस्त रागात्मक बंधनों से छूटा हुआ साधु जब तक मोक्ष प्राप्त हो जाए, तब तक परिव्रज्या में, संयम साधना में संप्रवृत्त रहे ।
टीका - 'इति' एवं यत्पूर्वमुक्तं तत्सर्वं स वीरो भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः परहितैकरत : 'आह' उक्तवान्, यत एवमतो धूतम्-अपनीतं रजः - स्त्रीसम्पर्कादिकृतं कर्म येन स धूतरजाः तथा धूतो मोहो रागद्वेषरूपो येन स तथा । पाठान्तरं वा धूतः- अपनीतो रागमार्गो - रागपन्था यस्मिन् स्त्रीसंस्तवादिपरिहारे तत्तथा तत्सर्वं भगवान् वीर एवाह, यत एवं तस्मात् स भिक्षुः अध्यात्मविशुद्धः, सुविशुद्धान्तःकरणः सुष्टु रागद्वेषात्मकेन स्त्रीसम्पर्केण मुक्तः सन् 'आमोक्षाय' अशेष कर्मक्षयं यावत्परि - समन्तात्संयमानुष्ठानेन 'व्रजेत्' गच्छेत्संयमोद्योगवान् भवेदिति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२२॥ इति चतुर्थं स्त्री परिज्ञाध्ययनं परिसमाप्तम् ॥
टीकार्थ - पहले जो वर्णन किया गया है, वह दिव्य ज्ञानी, परोपकार, परायण भगवान महावीर ने कहा है। उन्होंने स्त्री संपर्क आदि से उत्पन्न होने वाले, बंधने वाले समस्त कर्मों को अपगत कर दिया था, मिटा दिया था, रागद्वेषात्मक मोह को वे जीत चुके थे । यहाँ पाठान्तर भी है, तदनुसार भगवान महावीर ने यह कहा था कि स्त्री के साथ संस्तव - परिचय आदि का त्याग कर देना चाहिए, उसमें रागासक्त नहीं होना चाहिए । इसलिए साधु विशुद्ध अन्तःकरण युक्त तथा रागाद्वेष स्वरूप स्त्री सम्पर्क से सर्वथा पृथक होकर जब तक समस्त कर्म सम्पूर्ण रूप से क्षीण न हो जाय, संयम में उद्यमशील रहे । यहाँ इति शब्द समाप्ति का बोधक है । ब्रवीमि यह पूर्ववत् है ।
चौथा स्त्री परीज्ञा अध्ययन समाप्त हुआ ।
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