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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
कलत्रादिभिः कान्तैश्च विषयैर्विप्रमुक्ता एकाकिनस्ते 'दुरभिगन्धे' कुथितकलेवरातिशायिनि नरके 'कृतस्ते ' संपूर्णेऽत्यन्ताशुभस्पर्शे एकान्तोंद्वेजनीयेऽशुभ कर्मोपगता: 'कुणिमे 'त्ति मांसपेशीरुधिरपूयान्त्रफिप्फिसकश्मलाकुले सर्वामेध्याधमे बीभत्सदर्शने हाहारवाक्रन्देन कष्टं मा तावदित्यादिशब्दबधिरितदिगन्तराले परमाधमे नरकावासे आ - समन्तादुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यावद्यस्यां वा नरकपृथिव्यां यावदायुस्तावद् 'वसन्ति' तिष्ठन्ति, इति: परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२७॥
टीकार्थ अनार्य पुरुष अनार्य कर्मों का सेवन करते हैं वे हिंसा, असत्य तथा चोरी आदि आश्रव द्वारों का सेवन कर अत्यधिक अशुभ कर्मो का उपचय करते हैं। ऐसा कर वे क्रूरकर्मी जीव दुर्गन्धमय नरक में जाते हैं, निवास करते हैं । वे नारकीय जीव कैसे हैं ? ये बतलाते हैं कि वे इष्ट शब्दादि अभिप्सित विषयों तथा प्रिय-मनोज्ञ पदार्थों से रहित होकर नरक में अवस्थित होते हैं अथवा वे जीव जिन माता-पिता, पुत्र-स्त्री आदि के निमित्त पाप अर्जित करते हैं, उनसे रहित होकर अकेले ही सड़े हुये शव से भी अधिक दुर्गन्धयुक्त, अत्यधिक उद्वेजक उद्वेग जनक स्पर्शयुक्त माँस, चरबी, रुधिर, मवाद - आंत्र फिफ्फिस आदि अपवित्र पदार्थों से परिपूर्ण अत्यन्त घृणाजनक तथा हाहाकार शब्द से दिशाओं को बहरा बना देने वाले अत्यन्त अधम नरक में उत्कृष्ट अधिक से अधिक तैंतीस सागरोपम् समयावधि तक निवास करते हैं । यहाँ इति शब्द समाप्ति के अर्थ में है, ब्रवीमि बोलता हूँ, यह पहले की ज्यों योजनीय है ।
इस प्रकार नरक विभक्ति का प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ ।
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