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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीका - साम्प्रतमुद्देशकार्थमुपसंहरन् पुनरपिनारकाणांदुःखविशेष दर्शयितुमाह-एते' अनन्तरोद्देशकद्वयाभिहिताः 'स्पर्शाः' दुःखविशेषाः परमाधार्मिकजनिताः परम्परापादिताः स्वाभाविका वेति अतिकटवो रुपरसगंधस्पर्शशब्दाः अत्यंतदुःसहा बालमिव 'बालम्' अशरणं 'स्पृशन्ति' दुःखयन्ति 'निरन्तरम्' अविश्रामं 'अच्छिनिमीलय' मित्यादि पूर्ववत् 'तत्र' तेषु नरकेषु चिरं-प्रभूतं कालं स्थितिर्यस्य बालस्यासौ चिरस्थितिकस्तं, तथाहिरत्नप्रभाया मुत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमं, तथा द्वितीयायां शर्करप्रभायां त्रीणी, तथा बालुकायां सप्त, पङ्कायां दश, धूमप्रभायां सप्तदश तमःप्रभायां द्वाविंशतिर्महातमः प्रभायां सप्तमपृथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि उत्कृष्टा स्थितिरिति, तत्र च गतस्य कर्मवशापादितोत्कृष्ट स्थितिकस्य परैर्हन्यमानस्य स्वकृतकर्मफलभुजो न किञ्चित्वाणं भवति, तथाहि-किल सीतेन्द्रेण लक्ष्मणस्य नरकदुःखमनुभवतस्तत्राणोद्यतेनापि न त्राणं कृतमिति श्रुतिः, तदेवमेक:-असहायो यदर्थं तत्पापं समर्जितं तैरहितस्तत्कर्मविपाकजं दुःखमनुभवति, न कश्चिद्दुःखसंविभागं गृह्णातीत्यर्थः, तथा चोक्तम् -
"मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारूणम् । एकाकी तेन दोऽहं गतास्ते फलभोगिनः ॥१॥" इत्यादि ॥२२॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - सूत्रकार इस उद्देशक का समापन करते हुए पुनः नारकीय जीवों का दुःख बतलाने हेतु प्रतिपादित करते हैं । पहले के दो उद्देशकों में जिनका वर्णन आया है, जो परमाधामी देवों द्वारा दिये जाते हैं अथवा नारक जीव परस्पर एक दूसरे को देते हैं अथवा स्वभाव से ही जो प्रतिफलित होते हैं, अत्यन्त कटु हैं । जो रूप, रस, गंध, स्पर्श शब्द की अपेक्षा से बड़े दुःसह हैं । शरण रहित हैं । वे नारकीय प्राणियों को सदैव व्यथित करते रहते हैं । उनको एक पलक झपकने के समय तक भी उनसे छुटकारा नहीं मिलता । वे नारकीय जीव लम्बे समय तक नरक में निवास करते हैं क्योंकि पहली रत्नप्रभा नामक नरक भूमि में उत्कृष्टअधिक से अधिक सागरोपम काल तक की स्थिति है । दूसरी शर्कराप्रभा नामक नरक भूमि में उत्कृष्ट तीन सागरोपम काल की स्थिति है । तीसरी बालुका में सात, चौथी पंक में दस, पाँचवी धूमप्रभा में सत्रह, छठी तनप्रभाः में बाईस, सातवीं महतमप्रभाः में तैंतीस सागरोपम काल की उत्कृष्ट स्थिति है । इन नारक भूमियों में गये हुए तथा अपने कृत कर्मों द्वारा उत्कृष्ट स्थिति पाये हुए, दूसरों द्वारा मारे जाते हुए अपने कृत कर्मों का फल भोगने वाले नारकीय जीव को वहाँ कोई भी त्राण नहीं दे सकता-बचा नहीं सकता क्योंकि ऐसा सुना जाता है कि नरक में पीड़ा पाते हुए लक्ष्मण को देखकर उसे दुःख से-नारकीय दुःख से बचाने हेतु उद्यत सीतेन्द्र भी रक्षा नहीं कर सके । बचा नहीं सके । इस प्रकार यह जीव एकाकी अर्थात् जिन लोगों के निमित्त उसने पापों का उपार्जन किया-पाप कर्म बाँधे उन लोगों से रहित होकर अपने कर्मों के परिणाम स्वरूप दुःख भोगता है । उसके दुःख भोग में कोई भी सहभागी नहीं बन पाता । कहा है-मैंने अपने परिवार के निमित्त अत्यन्त दारूण-कठोर, पापपूर्ण कर्म किये जिनके फलस्वरूप मैं एकाकी ही दुःख भोग रहा हूँ। कर्मों का फल भोगने वाले मुझको वे सभी छोड़कर चले गए इत्यादि ।
जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए । एगंत दुक्खं भवमजणित्ता, वेदंति दुक्खी तमणंतदुक्खं ॥२३॥ छाया - यद् यादृशं पूर्वमकार्षीत्कर्म, तदेवागच्छति सम्पराये ।
एकान्तदुःखं भवमर्जयित्वा, वेदयन्ति दुःखिनस्तमनन्त दुःखम् ॥
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