________________
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् परम्परित सूत्र के साथ इसका यह संबंध है-देखने में प्रतीत होने वाले किसी साधु को कोई स्त्री पशु को लुभाने को फैलाये गए चावल के दानों के समान भोजन आदि देकर प्रतारित करना चाहे तो साधु राग द्वेष से ऊँचा उठकर उसमें अनुरक्त न बने । औज दो प्रकार का है-द्रव्य औज और भाव औज । द्रव्य औज परमाणु रूप है, तथा भाव औज राग द्वेष विवर्जित पुरुष रूप है । स्त्री में रागासक्त रहने से इसी लोक में तरह-तरह से कष्ट उठाने पड़ते हैं, जिनका आगे वर्णन होगा । उस राग से कर्मबन्ध होता है, तथा कर्मबंध के विपाक सेफल निष्पत्ति के रूप में नरक आदि में घोर यातनाएं भोगनी पड़ती है, अतः साधु को चाहिए कि वह इसे समझकर भाव औजयुक्त होकर-रागद्वेष रहित होकर सर्वदा अनर्थ-दुःख की खान स्त्रियों में वह अनुरक्त न बने । यदि कभी मोहोदय के कारण साधु में भोग की उत्कण्ठा उत्पन्न हो तो वह स्त्री संसर्ग से उत्पन्न होने वाले ऐहिक-इस लोक के तथा पारलौकिक-परलोक के दुःखों का विचार कर स्त्रियों से विरत रहे, दूर रहे। कहने का अभिप्राय यह है कि कर्मोदय के परिणामस्वरूप यदि चित्त स्त्री में संसक्त हो जाय तो हेय और उपादेय पदार्थों के स्वरूप पर चिंतन कर साधु ज्ञान रूपी अंकुश द्वारा उसको वहाँ से हटा दे । जो तपश्चरण द्वारा श्रान्त होता है, खिन्न होता है, उसे श्रमण कहा जाता है । इस कोटि के श्रमण भी भोगों में पड़ जाते हैं । यह सुने । कहने का अभिप्राय यह है कि गृहस्थों के लिए भी भोग विडम्बनामय है, संयतियों या साधओं के लिए तो कहना ही क्या ? उनके लिए तो भोग अत्यन्त विडम्बना मूलक है । भोग भोगने में जैसी अवस्था होती है, उसका तो कहना ही क्या ? 'मुण्डं शिरः' इत्यादि पद द्वारा यह वर्णन पहले ही आ ही चुका है। भोग विडम्बना मूलक है किन्तु फिर भी शिथिल-आत्मबलविहीन साधु जिस प्रकार उन्हें भोगते हैं, इस उद्देशक के सूत्रों द्वारा विस्तार से दिखलाया जायेगा । कहा है-एक कुत्ता जो शरीर से दुबला है, जिसकी एक आंख फूटी हुई है, पैर लंगडाता है, कान कटा हुआ है, पूंछ भी कटी हुई है, भूख से क्षीण है, जीर्ण है, गले में लगे हंडिया के गलन ठीकरे से पीडित है, घावों से मवाद निकल रहा है, उन पर सैंकड़ों कीड़े बिल-बिला रहे हैं, कुत्तियां के पीछे दौड़ता है, कामदेव मानों हत-मरे हुए को भी मारता है।
भोगासक्त जनों की विडम्बना का दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं । .
अह तं तु भेदमावन्नं, मुच्छितं भिक्खं काममतिवर्ल्ड । पलिभिंदिया णं तो पच्छा, पादुद्धठु मुद्धि पहणंति ॥२॥ छाया - अथ तन्तु भदमापन्नं मूर्च्छितं भिक्षु काममतिवर्तम् ।
परिभिद्य तत्पश्चात् पादावुध्यत्य मूर्ध्नि प्रघ्नन्ति ॥ अनुवाद - साधु को, संयम से पतित नारी में आसक्त, काम भोग में सम्मूर्च्छित जानकर स्त्री उसके मस्तक पर अपने पैर से प्रहार करती है-सिर पर लात मारती है ।
टीका - ‘अथे' त्यानन्तर्यार्थः तुशब्दो विशेषणार्थः, स्त्रीसंस्तवादनन्तरं 'भिक्षु' साधु 'भेदं' शील भेदं चारित्रस्खलनम् आपन्नं प्राप्तं सन्तं स्त्रीषु 'मूर्च्छित' गृद्धमध्युपन्नं, तमेव विशिनष्टि-कामेषु इच्छामदनरूपेषु मते:-बुद्धे-मनसो वा वर्तों-वर्तनं प्रवृत्तिर्यस्यासौ काममतिवर्तः कामाभिलाषुक इत्यर्थः, तमेवम्भूतं 'परिभिद्य मदभ्युपगतः श्वेतकृष्णप्रतिपत्ता मद्वशकइत्येवं परिज्ञाय यदिवा-परिभिद्य-परिसार्यात्मकृतं तत्कृतं चोच्चार्येति, तद्यथामया तव लुञ्चित शिरसो जल्लमला विलतया दुर्गन्धस्य जुगुप्सनीयकक्षावक्षोबस्तिस्थानस्य कुलशीलमर्यादा
(290