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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीकार्थ - जिसके केश होते हैं, उसे केशिका कहा जाता है । इस गाथा में 'णं' शब्द वाक्यालंकार के अर्थ में आया है । स्त्री कहती है कि हे मुनि ! यदि मेरे साथ तुम विहरण नहीं कर सकते, अर्थात् केशवाली
औरत के साथ भोग भोगने में उन्हें शर्म आती है, तो मैं जो तुम्हारे संग-संसर्ग की कामना करती हूँ । अपने केशों का लुंचन कर लूंगी-उन्हें उखाड़ डालूंगी, फिर दूसरे गहनों की तो बात ही क्या है ? यही अपि शब्द का तात्पर्य है । यहाँ केशों का लुंचन तो उपलक्षण मात्र है तुम्हारे साथ विदेश गमन आदि ओर भी जो दुष्कर कार्य हैं, वे सब मैं सहूँगी, किन्तु तुम्हें मेरे सिवाय ओर कहीं पर नहीं जाना है । कहने का तात्पर्य यह है कि मेरे बिना तुम पलभर भी न रहो, मेरी तुम्हें यही अभ्यर्थना है, तुम जो भी मुझे आदेश दोगे, वह सब मैं करूंगी।
- इस प्रकार अत्यन्त कोमल, विश्वासोत्पादक, आपात भद्र-प्रारंभ में अच्छे लगने वाले, आलाप संलापों से विश्वास पैदा कर स्त्रियाँ जो करती हैं, उसका दिग्दर्शन कराने हेतु कहते हैं ।
अह णं से होई उवलद्धो, तो पेसंति तहा भूएहिं ।। अलाउच्छेदं पेहेहि, वग्गुफलाइं आहाराहित्ति ॥४॥ छाया - अथ स भवत्युपलब्ध स्ततः प्रेषयन्ति तथा भूतैः ।
अलावूच्छेदं प्रेक्षस्व वल्गुफलान्याहर इति ॥ अनुवाद - जब वह साधु उपलब्ध हो जाता है-स्त्री के वश में हो जाता है, तब वह नौकर की ज्यों काम करने के लिए उसे प्रेषित करती है । वह कहती है-लौकी आदि काटने के लिए छुरी लाओ मेरे लिए छाँट-छाँटकर उत्तम फल लाओ।
टीका - 'अथे 'त्यानन्तर्यार्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे, विश्रम्भालापानन्तरं यदाऽसौ साधुर्मदनुरक्त इत्येवम् 'उपलब्धो' भवति-आकारैरिङ्गितैश्चेष्टया वा मद्वशग इत्येवं परिज्ञातो भवति ताभिः स्त्रीभिः, ततः तदभिप्राय परिज्ञानादुत्तरकालं' तथाभूतैः'कर्मकरव्यापारैरपशदै: 'प्रेषयन्ति'नियोजयन्ति यदिवा-तथाभूतैरितिलिङ्गस्थयोग्येापारैः प्रेषयन्ति, तानेव दर्शयितुमाह-'अलाउ 'त्ति अलाबु-तुम्बं छिपते येन तदलाबुच्छेद-पिप्पलकादिशस्त्रं 'पेहाहि' त्ति प्रेक्षस्व निरूपय लभस्वेति, येन पिप्पलकादिना लब्धेन पात्रादेर्मुखादि क्रियत इति, तथा 'वल्गूनि' शोभनानि 'फलानि' नालिकेरादीनि अलाबुकानि वा त्वम् 'आहर' आनयेति, यदि वा-वाक्फलानि च धर्मकथारूपाया * व्याकरणादिव्याख्यानरूपाया वा वाचो यानिफलानि-वस्त्रादिलाभरूपाणि तान्याहरेति ॥४॥ अपिच -
टीकार्थ - इस गाथा में 'अथ' शब्द अनन्तर के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, 'ण' शब्द वाक्यालंकार के रूप में है । विश्रम्भालाप-विश्वास उत्पन्न करने वाले, आलाप संलाप के बाद जब स्त्रियाँ साधु की आकृति भाव मुद्रा इंगित चेष्टा आदि से यह जान लेती है कि यह मेरे वश में आ गया है, मेरे अधीन है, तब वे जो छल में निपुण होती है, साधु को नौकर के समान नीचे से नीचे काम में नियुक्त करती है, वैसे कार्यों का दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार कहते हैं-जिससे तुम्बा या लौकी काटी जाती है, उसे अलाबुच्छेद कहते हैं । वह छुरी आदि के अर्थ में है, वह औरत उस साधु को कहती है-कि छुरी आदि शस्त्र लाओ, जिससे पात्र का मुख आदि ठीक किया जाय, नारियल आदि सुदूर फल तथा लौकी आदि सब्जियाँ लाओ, अथवा धर्मकथा
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