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स्त्री परिज्ञाध्ययनं
तथा व्याकरण आदि के व्याख्यान शिक्षण रूप वाणी का फल अर्थात् इन द्वारा धन अर्जित कर वस्त्र आदि
लाओ ।
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दारूणि सागपागाए, पज्जोओ वा भविस्सती राओ । पाताणि य मे रयावेहि, एहि ता मे पिट्ठ ओमद्दे ॥ ५ ॥
छाया दारूणि शाकपाकाय, प्रघोतो वा भविष्यति रात्रौ । पात्राणि च मे रञ्जय हि तावन्मे पृष्ठं मर्द्दय ॥
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अनुवाद हे मुनि ! शाक पकाने के लिए तथा रात्रि में रोशनी करने के लिए काष्ठ लाओ। मेरे
इन वर्तनों को रंगो, अथवा मेरे पैरों के महावर आदि लगाओ । आओ मेरी पीठ पर मालिश करो ।
टीका तथा 'दारुणि' काष्ठानि शाकं टक्कवस्तुलादिकं पत्रशाकंतत्पाकार्थं, क्वचिद् अन्नपाकायेति पाठः, तत्रान्नम्-ओदनादिकमिति, 'रात्रौ' रजन्यां प्रद्योतो वा भविष्यतीतिकृत्वा, अतो अटवीतस्तमाहरेति, तथा[ग्रन्थाग्रम् ३५००] 'पात्राणि' पतद्ग्रहादीनि 'रञ्जय' लेपय, येन सुखेनैव भिक्षाटनमहं करोमि, यदि वा - पादावलक्तकादिना रञ्जयेति, तथा परित्यज्यापरं कर्म तावद् 'एहि' आगच्छ 'मे' मम पृष्ठम् उत्त्- प्रावल्येन मर्दय बाधते ममाङ्गमुपविष्टाया अतः संबाधय, पुनरपरं कार्यशेषं करिष्यसीति ॥५॥ किञ्च
टीकार्थ - हे साधु ! टक्क, वस्तुल- बथुआ आदि पत्तियों के साग पकाने के लिए लकड़ी लाओ। कहीं 'अन्नपाकाय' ऐसा पाठ है तदनुसार अन्न चांवल आदि पकाने के लिए लकड़ी लाने का अभिप्राय है। अथवा रात में रोशनी करने हेतु जंगल से लकड़ी लाओ। मेरे वर्तनों को रंग दो जिन्हें लेकर मैं प्रसन्नता पूर्वक भिक्षा हेतु जाऊँगी अथवा मेरे पैरों पर महावर का लेप करो, उन्हें रंजित करो, दूसरे कार्य छोड़कर यहाँ आओ, और मेरी पीठ पर अच्छी तरह मालिश करो । बैठे-बैठे मेरे अंगों में दर्द हो गया है । इसलिए उन्हें दबाओ, काम फिर करना ।
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ॐ ॐ ॐ
वत्थाणि य मे पडिलेहेहि, अन्न पाणं च आहाराहित्ति । गंधं च रओहरणं च, कासवगं च मे समणु जाणाहि ॥ ६ ॥
छाया वस्त्राणि च मे प्रत्युपेक्षस्व, अन्नं पानञ्च आहर इति । गन्धञ्च रजोहरणञ्च काश्यपञ्च मे समनुजानीहि ॥
अनुवाद - हे साधो ! मेरे वस्त्रों का पडिलेहन - प्रतिलेखन करो, अथवा मेरे वस्त्र पुराने हो गए हैं, मुझे नए लाकर दो। मुझे भोजन और पानी लाकर दो । सुगन्धित पदार्थ और रजोहरण लाकर दो, मेरे लिए नाई को बुलाओ, और उससे मेरे बाल कटवाओ ।
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टीका – 'वस्त्राणि च ' अम्बराणि 'मे' मम जीर्णानि वर्तन्तेऽतः 'प्रत्युपेक्षस्व' अन्यानिनिरूपय यदिवामलिनानि रजकस्य समर्पय, मदुपाध वा मूषिकादिभयात्प्रत्युपेक्षस्वैति, तथा अन्नपानादिकम् 'आहार' आनयति, तथा 'गन्धं' कोष्ठपुटादिकं ग्रन्थं वाहिरण्यं तथा शोभनं रजोहरणं तथा लोचं कारयितुमह-मशक्तेत्यतः 'काश्यपं ' नापितं मच्छिरोमुण्डनाय श्रमणानुजानीहि येनाहं वृहत्केशानपनयामीति ॥ ६ ॥ किञ्चान्यत्
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