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स्त्री परिज्ञाध्ययनं 'प्रयच्छ' ददस्वेति तथा दत्ताः प्रक्षाल्पन्ते-अपगतमलाः क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रक्षालनं-दन्तकाष्ठं तन्ममान्तिके प्रवेशयेति ॥११॥
टीकार्थ - जिसके द्वारा नाक के बाल उखाड़े जाते हैं उसे संडासक कहा जाता है । जिस द्वारा बालों को सँवारा जाता है उसे फणिहक कहा जाता है ये कंघी का नाम है । चोटी बाँधने के लिए ऊन से निर्मित कंकण-गोल वर्तृल को सीहली पाषक कहा जाता है । ये सब वस्तुएँ लाकर मुझको दो । जिसमें चारों ओर से अपने आपको आदर्श या आदर्शक कहा जाता है यह दर्पण या शीशे का नाम है । यह मुझे लाकर दो । जिसके द्वारा दांतो का यैल अपगत किया जाता है, दूर किया जाता है उसे दंत प्रक्षालक कहा जाता है । वह दाँत साफ करने की पेड़ की टहनी के दतौन अथवा ब्रुश का नाम है।
पूयफलं तंबोलयं, सूई सुत्तगं च जाणाहि । कोसं च मोय मेहाए, सुप्पुक्खलगं च खारगालणं च ॥१२॥ . छाया - पूगीफलं ताम्बूलं, सूत्रिसूत्रञ्च जानीहि ।
कोशंच मोचमेहाय, शूपौखलञ्च क्षारगालनकम् ॥ अनुवाद - मुझे सुपारी, पान, सुई-धागा, लघु शंका करने हेतु बर्तन, सूप-छाज, उखल तथा खार गलाने हेतु बर्तन लाकर दो।
टीका - पूगफलं प्रतीतं 'ताम्बूलं' नागवल्लीदतं तथा सूचीं च सूत्रं च सूच्यर्थं वा सूत्रं 'जानीहि' ददस्वेति, तथा 'कोशम्' इति वारकादिभाजनं तत् मोचमेहाय समाहर, तत्र मोचः-प्रस्त्रवणं कायिकेत्यर्थः तेन मेह:-सेचनं तदर्थं भाजनं ढौकय, एतदुक्तं भवति बहिर्गमनं कर्तुमहमसमर्था रात्रौ भयाद्, अतो मम यथा रात्रौ बहिर्गमनं न भवति तथा कुरु, एतच्चान्यस्याप्यधमतमकर्तव्यस्योपलक्षणं द्रष्टव्यं, तथा 'शूर्प' तन्दुलादिशोधनं तथोदूखलं तथा किञ्चन क्षारस्य-सर्जिकादेर्गालिनकमित्येवमादिकमुपकरणे सर्वमप्यानयेति ॥१२॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - पूंगी फल सुविदित है- सभी जानते हैं यह सुपारी का नाम है । नागर बेल का पत्ता ताम्बूलपान कहा जाता है । सूई और सूत अथवा सूई में पिरोकर सीने का धागा मुझे लाकर दो । लघुशंका करने का पात्र कोश कहा जाता है, मुझे लाकर दो । कहने का अभिप्राय यह है कि मैं रात को बाहर जाने में डरती हूँ । इसलिए मुझे रात को बाहर न जाना पड़े ऐसा करो । दूसरे भी सामान्य कार्य के उपयोग में आने वाले बर्तन लाकर दो, ऐसा भी इससे संकेतिक है । चांवल आदि के शोधन हेतु जो उपयोग में आता है उसे शूर्पसूप कहते हैं । मुझे सूप उखल और क्षार-साजी आदि गलाने हेतु बर्तन आदि लाकर दो।
चंदालगं च करगं च, वच्चघरं च आउसो ! खणाहि । सरपाययं च जायाए, गोरहगं च सामणेराए ॥१३॥ छाया - चन्दालकञ्च करकं वक़गृहञ्च आयुष्मन् ! खन ।
शरपातञ्च जाताय, गोरथकं श्रामणये ! ॥
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