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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीका - पातालोदरगम्भीरेण मनसाऽन्यच्चिन्तयन्ति तथा श्रुतिमात्रपेशलया विपाकदारूणया वाचा अन्यद्भाषन्ते तथा 'कर्मणा' अनुष्ठानेनान्यन्निष्पादयन्ति, यत एवं बहुमायाः स्त्रिय इति, एवं ज्ञात्वा 'तस्मात्' तासां 'भिक्षुः' साधुः 'न श्रद्दधीत' तत्कृतया माययात्मानं प्रतारयेत्. दत्तावैशिकवत. अत्र चैतत्कथानम-दत्तावैशिक एकया गणिकया तैस्तैः प्रकारैः प्रतार्यमानोऽपि तां नेष्टवान्, ततस्तयोक्तम्-किं मया दौर्भाग्यकलङ्काङ्कितया जीवन्त्या प्रयोजनम् ?, अहं त्वत्परित्यक्ताऽग्निं प्रविशामि, ततोऽसाववोचत्-मायया इदमप्यस्ति वैशिके, तदाऽसौ पूर्वसुरङ्गामुखे काष्ठसमुदयं कृत्वा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रविश्य सुरङ्गया गृहमागता, दत्तकोऽपि च इदमपि अस्ति वैशिके इत्येवमसौ विलपन्नपि वातिकैश्चितायां प्रक्षिप्तः, तथापि नासौ तासुश्रद्धानं कृतवान् एवमन्येनापिन श्रद्धातव्यमिति॥२४॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - सूत्रकार स्त्रियों का स्वभाव प्रकट करने हेतु प्रतिपादित करते हैं । स्त्रियाँ पाताल के उदर की ज्यों अपने अत्यन्त गम्भीर-गहरे मन में कुछ अन्य सोचती है और ऐसी वाणी द्वारा सम्भाषण करती है, ऐसा बोलती है जो सुनने में रूचि लगती है किन्तु परिणाम में दारूण व कष्टकर होती है । वे कर्म द्वारा कुछ ओर ही करती हैं, वे बहुत मायावती-छल प्रधान होती हैं । अतएव साधु को चाहिए कि वे उन पर विश्वास न करें । उनकी माया प्रवंचना द्वारा अपनी आत्मा को वंचित न होने दे । धोखे में न आने दे । जैसे दत्ता वैशक नामक पुरुष स्त्री की माया से धोखे में नहीं आये । एक कथानक है, दत्ता वैशक नामक पुरुष को प्रतारित करने के लिए-ठगने के लिए एक गणिका ने तरह-तरह के उपाय किये किन्तु उसने उसकी कामना नहीं की। उसके बाद गणिका ने कहा मैं दुर्भाग्य के कलंक से अंकित हूँ-बड़ी अभागिनी हूँ-बदकिस्मत हूँ अब जीवित रहने से मुझे क्या लाभ आपने मेरा परित्याग किया मुझे स्वीकार नहीं किया । अतः मैं अग्नि में प्रवेश करूंगी। यह सुनकर दत्तावैशक बोला कि स्त्रियाँ छलपूर्वक आग में भी प्रवेश कर सकती है । उसके बाद गणिका ने पहले से बनायी हुई सुरंग के द्वार पर काष्ठ राशि एकत्रित कर चिता बनवाकर उसमें प्रविष्ठ होकर आग लगवा ली व सुरंग द्वारा अपने घर पहुँच गयी इस पर दत्तक ने कहा कि स्त्रियाँ ऐसी छलना प्रवंचना भी करती हैं, वह ऐसा कह ही रहा था कि कुछ सिरफिरे धूर्त या पागल उसको विश्वास कराने के लिए उसे चित्ता पर फेंकने को उद्यत हुए । वह इस पर विलाप करने लगा, शोक करने लगा, पर वे सिरफिरे नहीं माने उसको चिता में डाल दिया फिर भी उसने स्त्रियों पर विश्वास नहीं किया इसी तरह ओरों को भी स्त्रियों पर विश्वास नहीं करना चाहिए ।
जुवती समणं बूया विचित्तलंकार वत्थगाणि परिहित्ता । विरत्ता चरिस्सहं रुक्खं, धम्ममाइक्ख णे भयंतारो ॥२५॥ छाया - युवतिः श्रमणं बूयाद् विचित्रालङ्कारवस्त्रकाणि परिधाय
विरता चरिष्याम्यहं रूक्षं धर्ममाचक्ष्व नः भयत्रातः ॥ अनुवाद - कोई नवयौवना तरह-तरह के आवरण आभूषण धारण कर साधु से कहे कि आप संसार के जन्म मरण के भय से रक्षा करने वाले है । मैं वैराग्ययुक्त होकर संयम का पालन करूंगी । आप मुझे धर्म सुनायें, धर्मोपदेश दे ।
टीका - 'युवति' अभिनव यौवना स्त्री विचित्रवस्त्रालङ्कारविभूषितशरीरा मायया श्रमणं ब्रूयात्, तद्यथाविरता अहं गृहपाशात् न ममानुकूलो भर्ता मह्यं वाऽसौ न रोचते परित्यक्ता वाऽहं तेनेत्येतत् 'चरिष्यामि'
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