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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । जतुकुंभे जोइउवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुवयाइ ।
एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥२७॥ छाया - जतुकुम्भे ज्योतिरूपगूढः आश्वभितप्तो नाशमुपयाति ।
एवं स्त्रीभिरनगाराः संवासेन नाशमुपयान्ति ॥ अनुवाद - ज्योति-अग्नि द्वारा उपगूढ-आलिंगित या स्पर्श किया हुआ लाख का धड़ा चारों ओर से अभितप्त होकर, खूब तप कर शीघ्र ही गल जाता है, उसी प्रकार अणगार-गृहत्यागी साधु स्त्रियों के संवाससम्पर्क में आकर शीघ्र नाश प्राप्त करता है, विनष्ट हो जाता ।
टीका - यथा जातुषः कुम्भो 'ज्योतिषा' अग्निनोपगूढः-समालिङ्गितोऽभितप्तोऽग्निनाभिमुख्येन सन्तापितः क्षिप्रं 'नाशमुपयाति' द्रवीभूय विनश्यति, एवं स्त्रीभिः सार्धं 'संवसनेन' परिभोगेनानगारा नाशमुपयान्ति, सर्वथा जातुषकुम्भवत् व्रतकाठिन्यं परित्यज्य संयमशरीराद् भ्रश्यन्ति ॥२७॥ अपिच -
टीकार्थ - इस प्रकार स्त्री के सान्निध्य में होने वाले दोषों को प्रदर्शित कर अब उसके संस्पर्शजसंस्पर्श से पैदा होने वाले दोषों को प्रगट करने हेतु कहते हैं । जैसे अग्नि द्वारा समालिंगित-संस्पृष्ट लाख का घड़ा चारों ओर से अग्नि द्वारा संतापित किये जाने पर द्रव के रूप में परिवर्तित होकर-गलकर नष्ट हो जाता है । जिस प्रकार लाख का घड़ा तपकर अपना कडापन छोड़ देता है, वैसे ही स्त्री के संवास से साधु व्रत का काठिन्य-कठिन व्रतों का आचरण छोड़कर संयम रूपी शरीर से भ्रष्ट पतित हो जाते हैं।
कुव्वंति पावगं कम्मं पुट्ठा वेगेवमाहिंसु । नोऽहं करेमि पावंति, अंके साइणा ममेसत्ति ॥२८॥ छाया - कुवन्ति पापकं कर्म, पृष्टा एके एवमाहुः ।
नाऽहं करोमि पापमिति अङ्केशायिनी ममैषेति । अनुवाद - कई पतित पुरुष जो दुष्कर्म करते हैं, जब उनसे पूछा जाता है तो कहते हैं कि हम पाप नहीं करते, यह स्त्री तो मेरी गोद में सोती रही है अर्थात् बचपन में मेरी गोदी में लेटती रही है ।
- टीका - तासु संसाराभिष्वङ्गिणीष्वभिषक्ता अवधीरितैहिकामुष्मिकापायाः "पापकर्म" मैथुनासेवनादिकं 'कुर्वन्ति' विदधति, परिभ्रष्टाः सदनुष्ठानाद् ‘एके' केचनोत्कटमोहा आचार्यादिना चोद्यमाना 'एवमाहुः' वक्ष्यमाण मुक्तवन्तः, तद्यथा-नाहमेवम्भूतकुलप्रसूतः एतद्कार्य पापोपादानभूतंकरिष्यामि, ममैषा दुहितृकल्पा पूर्वम् अङ्केशायिनी आसीत् तदेषा पूर्वाभ्यासेनैव मय्येवमाचंरति, न पुनरहं विदितसंसारस्वभावः प्राणात्ययेऽपि व्रतङ्गं विधास्य इति ॥२८॥ किञ्च -
___टीकार्थ – संसार में फंसाने वाली स्त्री में संसक्त तथा संयममूलक सत् अनुष्ठान से पतित तथा ऐहिक और पारलौकिक पतन से अभीत-नहीं डरने वाले, भ्रष्ट पुरुष दुष्कर्म करते हैं वे उत्कट घोर मोह से आच्छादित हैं, जब आचार्य आदि उससे पूछते हैं तो वे ऐसा बतलाते हैं कि मैं ऐसे कुल में-नीच कुल में पैदा नहीं हुआ हूँ कि इस प्रकार के पापजनक अनुचित कार्य करूं । यह स्त्री तो मेरी बेटी के समान है, यह बचपन में मेरी
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