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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
टीकार्थ - स्त्रियों का संपर्क, संसर्ग परिणाम में कटु-कठोर फलप्रद होता है । इसलिए परिवर्जन परित्याग करना चाहिए । यहाँ इस गाथा में प्रयुक्त 'तु' शब्द से यह संकेत किया गया है कि स्त्रियों से आलाप, संलाप - बातचीत नहीं करनी चाहिए। किसकी तरह ? इसे स्पष्ट करते हुए बतलाते हैं कि स्त्रियों को जहर से सने हुए कांटे के समान समझकर उनका परित्याग करना चाहिए । जहर से सना हुआ कांटा तो शरीर के किसी अंग में टूट जाय तो वह अनर्थ-पीड़ा पैदा करता है किन्तु स्त्रियाँ स्मरण मात्र से ही अनर्थ पैदा करती हैं । इसलिए कहा है कि विष और विषय का आपस में इतना अन्तर है, विष तो खाने पर प्राणों का नाश करता है, किन्तु विषय याद करते ही प्राणों को हर लेता है । विष या जहर खाना अच्छा है किन्तु विषय का सेवन करना अच्छा नहीं है क्योंकि विष खाने से तो प्राणी एक ही बार मौत की पीड़ा पाता है किन्तु विषयरूपीं आमिष-मांस का सेवन करने से मनुष्य नरक में बार-बार गिरता है और यातनाएं भोगता है । जो पुरुष स्त्री के अधीन होकर उसे अपने अनुकुल बनाने के लिए उसके कथनानुसार एकाकी उसके घर जाकर धर्म का आख्यान करता है, वह निर्ग्रन्थ-सम्यक् प्रव्रजित या सच्चा साधु नहीं है क्योंकि जिन आचरणों का निषेध किया गया है, उनका सेवन करने से उसका पतित होना संभावित है। यदि कोई महिला किसी कारणवश साधु के स्थान में आने में असमर्थ हो, अथवा कोई वृद्धा हो तो दूसरे सहयोगी साधुओं के न होने पर साधु एकाकी भी उसके पास जाकर अन्य स्त्रियों से परिवेष्टित घिरी हुई अथवा पुरुषों से युक्त महिला को वैराग्य उत्पन्न करने वाले धर्म का उपदेश करे, जिसमें स्त्री निन्दा एवं सांसारिक भोगों की निन्दा मुख्य रूप से हो ऐसा करने में कोई आपत्ति नहीं है ।
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अन्वय- जिसके होने पर जिसका होना तथा व्यतिरेक - जिसके न होने पर जिसका न होना (यत् सत्वे यत सत्वं - अन्वयः, यत् असत्वे, यत् असत्वं - व्यतिरेक: ) इस पद्धति द्वारा परिकथित अर्थ सुगमआसान होता है, इस अभिप्राय से सूत्रकार कहते हैं ।
एयं उंछं अणुगिद्धा, अन्नयरा हुंति कुसीलाणं । सुत्तवस्सिएवि से भिक्खू, नो विहरे सह णमित्थीसु ॥ १२ ॥
छाया
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य एतदञ्च्छमनुगुद्धा अन्यतरास्ते भवन्ति कुशीलानाम् । सुपतस्व्यपि स भिक्षुः न विहरेत् सार्धं स्त्रीभिः ॥
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अनुवाद - जो पुरुष स्त्री संसर्ग जैसे निन्द्य कर्म में संलग्न है, वे कुशील है- सदाचरणहीन है। अतः सांधु यदि उत्कृष्ट तपस्वी हो तो भी उसे नारियों के साथ विहार-मेल मिलाप नहीं करना चाहिए।
टीका- 'जे एयं उंछ' मित्यादि, 'ये' मन्दमतयः पश्चात्कृतसदनुष्ठानाः साम्प्रतेक्षिण एतद्-अनन्तरोक्तम् उंछन्ति जुगुप्सनी गईं तदत्र स्त्रीसम्बन्धादिकं एकाकिस्त्रीधर्मकथनादिकं वा द्रष्टव्यं तदनु-तत्प्रति ये 'गृद्धा' अध्युपपन्ना मूर्च्छिताः, ते हि 'कुशीलानां' पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्त यथाच्छन्दरूपा णामन्यतरा भवन्ति, यदिवाकाथिकपश्यकसम्प्रसारकमामकरूपाणांत्र कुशीलानामन्यतरा भवन्ति, तन्मध्यवर्तिन स्तेऽपि कुशीला भवन्तीत्यर्थः, यत एवमतः‘सुतपक्व्यपि’विकृष्टतपोनिष्टप्ततदेहोऽषि भिक्षु ः 'साधुः आत्महितमिच्छन् 'स्त्रीभि:'समाधिपरिपन्थिनीभिः सह 'न विहरेत्' क्वचिद्रछेन्नापि सन्तिष्ठेत्, तृतीयार्थे सप्तमी, णमिति वाक्यालङ्कारे, ज्वलिताङ्कारपुञ्जवद्द्द्व्रतः स्त्रियो वर्जयेदितिभावः ||१२|| कतमामिः पुनः स्त्रीभिः सार्धं न विहर्तव्यमित्येतदाशङ्कयाह
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