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स्त्री परिज्ञाध्ययनं उंडेल दिया । इसके बाद जब लोगों की बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गयी तब वह कहने लगी कि इसके गले के भीतर पानी लग गया था । विपरीत जल सेवन जनित दोष-रोग पैदा हो गया था । यह मरणासन्न था । यह देखकर मैंने इसको पानी से स्नान करा दिया, इस पर पानी का घड़ा उंडेल दिया । जब एकत्रित भीड़ छंट गई तब वह नौजवान से पूछने लगी कि कामशास्त्र का अध्ययन कर तुमने नारी के स्वभाव का क्या ज्ञान प्राप्त किया, क्या इतना ही सीखा ? वास्तव में औरत के चरित्र को जान पाना बहुत मुश्किल है । इसलिए पुरुष को औरत के स्वभाव पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए । कहा गया है कि औरतों के दिल में कुछ और होता है, पीछे कुछ और होता है, जबान पर कुछ और होता है, सामने कुछ और होता है, पीछे कुछ और होता है। तुम्हारे लिए कुछ अन्य मेरे लिए उससे भिन्न कुछ और ही होता है अर्थात् किन्हीं दो पुरुषों के प्रति उसका एक जैसा मानस नहीं होता । वास्तव में औरतों का सब कुछ ओर ही या भिन्न ही होता है ।
जाता है।
अवि हत्थपादछेदाए, अदुवा वद्धमंसउक्तते । अवि तेय साभितावणाणि, तच्छिय खारसिंचणाइं च ॥२१॥ छाया - अपि हस्तपादच्छेदाय, अथवा वर्धमांसोत्कर्त्तनम् ।
अपि तेजसाऽभितापनानि तक्षयित्वा क्षारसिञ्चनानिच ॥ अनुवाद - जो पुरुष पर नारी का सेवन करते हैं उनके हाथ पैर छिन्न कर दिये जाते हैं-काट दिये जाते हैं । उनकी चमड़ी और माँस उधेड़ दिये जाते हैं । अग्नि द्वारा उन्हें परितप्त किया जाता है और उनके अंग काट कर उन घावों पर नमक आदि का क्षार युक्त जल डाला जाता है ।
टीका - स्त्रीसम्पर्को हि रागिणां हस्तपादच्छेदाय भवति, 'अपि:' सम्भावने सम्भाव्यत एतन्मोहातुराणां स्त्रीसम्बन्धाद्धस्तपादच्छेदादिकम्, अथवा वर्धमांसोत्कर्तन मपि तेजसा, अग्निना अभितापनानि' स्त्री सम्बन्धिभिरूत्तेजितै राजपुरुषैर्भटित्रकाण्यपि क्रियन्ते पारदारिकाः, तथा वास्यादिना तक्षयित्वा क्षारोदकसेचनानि च प्रापयन्तीति ॥२१॥ अपिच
टीकार्थ - परस्त्री गमन करने वाले रागयुक्त कामी पुरुषों के हाथ पैर काट दिए जाते हैं । इस गाथा में अपि शब्द सम्भावना के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । अर्थात परस्त्री में मोहित, आतुर पुरुष के हाथ पैरों का काटा जाना सम्भावित है । अथवा पर स्त्री लोलुप पुरुषों की चमड़ी व माँस का छिन्न-भिन्न किया जाना सम्भावित है । स्त्री के पारिवारिक जनों द्वारा उत्प्रेरित राजपुरुष परस्त्रीगामियों को भट्टी आदि पर चढ़ाकर परितप्त करते हैं तथा वसूला आदि से उनकी देह को छीलकर उस पर क्षार युक्त जल छिड़कते हैं।
अदु कण्णणासच्छेदं, कंठच्छेदणं तितिक्खंती ।। इति इत्थ पावसंत्तता, नय बिंति पुणो न काहिंति ॥२२॥ छाया - अथ कर्णनासिकाच्छेदं कण्ठच्छेदनं तितिक्षन्तो । इत्यत्र पापसन्तप्ताः, न च ब्रुवते न पुनः करिष्यामः ॥
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