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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् । टीका - स कुशीलो वाङ्मात्रेणाविष्कृतवीर्यः 'पर्षदि' व्यवस्थितो धर्मदेशनावसरे सत्यात्मानं 'शुद्धम्' अपगतदोषमात्मानमात्मीयानुष्ठानं वा 'रौति' भाषते अथानन्तरं 'रहस्ये' कान्ते 'दुष्कृतं पापं तत्कारणं वाऽसदनुष्ठानं 'करोति' विदधाति, तच्च तस्यासदनुष्ठानं गोपायतोऽपि 'जानन्ति' विदन्ति, के ?-तथारूपमनुष्ठानं विदन्तीति तथाविदः-इङ्गिताकारकुशला निपुणास्तद्विद इत्यर्थः यदि वा सर्वज्ञाः एतदुक्तं भवति-यद्यप्यपरः कश्चिदकर्तव्यं तेषां न वे त्ति तथापि सर्वज्ञा विदन्ति, तत्परिज्ञानेनैव किं न पर्याप्तं ?, यदि वा-मायावी महाशठश्वायमित्येवं तथा विदस्तद्विदो जानन्ति, तथाहि-प्रच्छन्नाकार्यकारी न मां कश्चिज्जानात्येवं रागान्धो मन्यते, अथ च तं तद्विदो विदन्ति, तथा चोक्तम् -
"न य लोणं लोणिज्जइ ण य तुप्पिज्जइ घयं व तेल्लं वा । किह सक्को वंचेऊं अत्ता अणुहूय कल्लाणो ॥१॥" ॥१८॥ किञ्चायत् -
छाया - न च लवणं लयणीयते न म्रक्ष्यते घृतं चतैलं च । किं शक्यो वंचयितुं मात्माऽनुभूताकल्याणः ॥
टीकार्थ - वह कुशील-आचारहीन पुरुष वाणी मात्र से अपना पराक्रम प्रकट करता है । धर्मदेशना के अवसर पर वह अपने को तथा अपने आचरण को शुद्ध निर्दोष बतलाता है, परन्तु वह एकांत में दुष्कृतपाप या पापजनक असत् कार्य करता है, यद्यपि वह अपने असत्-अपवित्र अनुष्ठान आचार को गोपित करता है-छिपाता है, तो भी लोग उसे जान जाते हैं । कौन जान पाते हैं ? यह प्रश्न उठाते हुए बतलाते हैं कि जो पुरुष आङ्गिक चेष्टा एवं आकार-भाव भङ्गी को जानने में कुशल है वे उसके असत् आचरण को जान लेते हैं, अथवा सर्वज्ञ-सर्वज्ञाता सर्वद्रष्टा महापुरुष उसे जानते हैं । कहने का आशय यह है कि उस चरित्रहीन पुरुष के दूषित कार्यो को चाहे अन्य लोग न जाने परन्तु सर्वज्ञ पुरुष तो जान ही लेते हैं । क्या सर्वज्ञ पुरुष जो यह जानते हैं, वह क्या उनके असत् अनुष्ठान के स्चन के लिए पर्याप्त नहीं हैं अथवा उसके स्वरूप को, कार्य कलाप को जानने वाले पुरुष यह देखते हैं कि यह मायावी-छली प्रपञ्ची है, महाशठ-बड़ा दुष्ट है, राग से अन्धा बना हुआ है, छिप-छिपकर बुरे कार्य करता है तथा अपने मन में यह समझता है कि मुझे कोई नहीं जानता, किन्तु जानने वाले तो जान ही लेते हैं। कहा है-नमक की लवणता-खारापन तथा घृत व तेल की स्निग्धताचिकनापन छिपाया नहीं जा सकता । उसी प्रकार दुष्कर्म करने वाली आत्मा को छिपाया नहीं जा सकता ।
सयं दुक्कडं च न वदति, आइट्ठोवि पकत्थति बाले । वेयाणुवीइ मा कासी, चोइजंतो गिलाइ से भुजो ॥१९॥ छाया - स्वयं दुष्कृतं च न वदति, आदिष्टोऽपि प्रकत्थते बालः ।
वेदानुवीचि मा कार्षीः चोद्यमानो ग्लायति स भूयः ॥ अनुवाद - द्रव्यलिंगी-साधु का बाना धारण करने वाला बाल-अज्ञानी जन स्वयं अपना दुष्कृत या पाप अपने आचार्य या गुरु से नहीं कहता । दूसरा वैसी प्रेरणा करे तो वह अपनी ही तारीफ करने लगता है। जब उसे गुरुजन कहते हैं कि तुम अब्रह्मचर्य का सेवन मत करो तो वह ग्लानि पूर्ण हो जाता है ।
टीका - 'स्वयम्' आत्मता प्रच्छन्नं यदुष्कतं कृतं तदपरेणाचार्यादिना पृष्टो न ‘वदति' न कथयति, यथा अहमस्याकार्यस्य कारीति, स च प्रच्छन्नपापो मायावी स्वयमवदन् यदा पारेण 'आदिष्टः' चोदितोऽपि
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