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स्त्री परिज्ञाध्ययनं बहवे गिहाई अवहटु, मिस्सीभावं पत्थुया य एगे । धुवमग्गमेव पवयंति, वया वीरियं कुसीलाणं ॥१७॥ छाया - वहवो गृहाणि अवहत्य मिश्रीभावं प्रस्तुताश्च एके ।
ध्रुवमार्गमेव प्रवदन्ति वाचा वीर्य्य कुशीलानाम् ॥ अनुवाद - बहुत से ऐसे लोग होते हैं जो दीक्षा लेकर भी अंशतः गृहस्थ एवं अंशतः साधु के आचार का सेवन-पालन करते हैं । वे अपने इस मिश्रणमय आचार को ही मोक्ष का पथ बतलाते हैं । कुशील-कुत्सित आचारयुक्त जनों की वाणी में ही पराक्रम होता है. कार्य में नहीं ।
टीका - 'बहवः' केचन गृहाणि 'अपहृत्य' परित्यज्य पुनस्तथाविधमोहोदयात् मिश्रीभावम् इति द्रव्यलिङ्गमात्रसद्भावाद्भावतस्तु गृहस्थसमकल्पा इत्येवम्भूता मिश्रीभावं 'प्रस्तुताः' समनुप्राप्ता न गृहस्था एकान्ततो नापि प्रव्रजिताः, तदेवम्भता अपि सन्तो ध्रवो-मोक्ष: संयमो वा तन्मार्गमेव प्रवदन्ति. तथाहि-ते वक्तारो भन्ति यथाऽयमेवास्मदारब्धो मध्यमः पन्थाः श्रेयान्, तथाहि-अनेन प्रवृतानां प्रव्रज्यानिर्वहणं भवतीति, तदेतत्कुशीलानां वाचा कृतं वीर्य नानुष्ठान कृतं, तथाहि ते द्रव्यलिङ्गधारिणो वाङ्मात्रेणैव वयं प्रव्रजिता इति ब्रुवते नतु तेषां सातगौरवविषयसुखप्रतिबद्धानां शीतलविहारिणां सदनुष्ठानवृतं वीर्यमस्तीति ॥१७॥ अपिच
टीकार्थ - बहुत से ऐसे व्यक्ति हैं, जो गृहस्थ जीवन का परित्याग करके भी पुनः तथा विध मोहोदय के कारण वे मिश्र अवस्था को स्वीकार कर लेते हैं । वे द्रव्यलिंग-बाह्यवेश को ग्रहण करने मात्र से साधु हैं तथा गृहस्थ के सदृश आचरण करने से गृहस्थ हैं । इस प्रकार वे मिश्र मार्ग को स्वीकार किए हुए हैं । वे न तो एकांतत:-निश्चित रूप में, पूर्ण रूप में गृहस्थ ही हैं और न एकांततः साधु ही हैं । ऐसा होते हुए भी वे अपने द्वारा परिगृहीत मार्ग को ही ध्रुव-मोक्ष या संयम का मार्ग बतलाते हैं । वे ऐसा कथन करते हैं कि
मध्यममार्ग-बीच के रास्ते का अनसरण करना शरू किया है वही रास्ता सबसे उत्तम हैं-क्योंकि उस मार्ग पर चलने वाले पुरुष के प्रव्रजित संयम जीवन का भली भांति निर्वाह होता है, किन्तु यह तो उन शील रहित जनों की वाणी का ही वीर्य-पराक्रम है, आचरण का नहीं क्योंकि द्रव्यलिंग धारी-केवल वेश मात्र से साधु बने हुए पुरुष वाणी द्वारा अपने को प्रव्रजित बतलाते हैं किन्तु उनमें वैसा आचार नहीं है । वे साता गौरव और विषय सुख में प्रतिबद्ध-बंधे हुए हैं, शिथिल विहारी हैं, उनमें सद् अनुष्ठान-संयम मूलक आचार में पराक्रम दिखाने का सामर्थ्य नहीं है।
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सुद्धं खति परिसाए, अह रहस्संमि दुक्कडं करेंति । जाणंति, य णं तहाविहा, माइल्ले महासढेऽयंति ॥१८॥ छाया - शुद्धं रौति परिषदि, अथ रहसि दुष्कृतं करोति ।
जानन्ति च तथाविदो मयावी महाशठ इति ॥ अनुवाद - साध्वाचरित पुरुष सभी में ऐसा आख्यान करता है कि मैं शुद्ध हूँ । शुद्ध संयम का पालन करता हूँ, किन्तु वह एकान्त में छिपकर दुष्कृत्-पाप सेवन करता है । उसकी शारीरिक चेष्टाएं आदि जानने वाले पुरुष यह समझते हैं कि यह छली है--बड़ा शठ-दुष्ट, मूर्ख है ।
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