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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् कर पकाकर अपने श्वसुर तथा पति को परोस दी । श्वसुर ने सारी बात समझ ली । उसके पति ने कुपित होकर उसे पीटा तथा यह आशंका कर कि इसका चित्त किसी अन्य पुरुष में लगा है, उसे घर से निकाल दिया ।
कुव्वंति संथवं ताहिं पब्भट्ठा समाहिजोगेहिं । तम्हा समणा ण समेंति, आएहियाए सण्णिसेजाओ ॥१६॥ छाया - कुवन्ति संस्तवं ताभिः प्रभ्रष्टाः समाधियोगेभ्यः ।
तस्मात् श्रमणाः न संयन्ति आत्महिताय संनिषद्याः ॥ अनुवाद - जो पुरुष समाधि एवं योग से भ्रष्ट होते हैं, वे ही नारियों से संस्तव-परिचय बढ़ाते हैं, श्रमण-सच्चे साधु अपना आत्महित सोचते हुए स्त्रियों के स्थान पर नहीं जाते । .
टीका-'कुव्वंति 'त्यादि, ताभि:'स्त्रीभिः-सन्मार्गार्गलाभिःसह संस्तवं तद्गृहगमनालापदानसम्प्रेक्षणादिरूपं परिचयं तथा विधमोहोदयात् 'कुर्वन्ति' विदधति, किम्भूताः?-प्रकर्षेण भ्रष्टाः स्खलिताः 'समाधियोगेभ्यः' समाधिः धर्मध्यानं तदर्थं तत्प्रधाना वा योगा-मनोवाक्कायव्यापारास्तेभ्यः प्रच्युता शीतलविहारिण इति, यस्मात् स्त्री संस्तवात्समाधियोगपरिभ्रंशो भवति तस्मात्कारणात 'श्रमणाः' सत्साधवो 'न समेन्ति' न गच्छन्ति. सत शोभना सुखोत्पादकतयाऽनुकूलत्वान्निपद्या इव निषद्या स्त्रीभिः कृता माया, यदिवास्त्रीवसतीरिति, 'आत्महिताय' स्वहितं मन्यमानाः, एतच्च स्त्रीसम्बन्धपरिहरणं तासामप्यहिकामुष्मिकापायपरिहाराद्धितमिति, क्वचित्पश्चाईमेवं पठ्यते"तम्हा समणा उ जहाहि अहिताओ सन्निसेज्जाओ" अयमस्यार्थः-यस्मात्स्त्रीसम्बन्धोऽनर्थाय भवति, तस्मात् हे श्रमण ! साधो ! तुशब्दो विशेषणार्थः, विशेषेण संनिषद्या-स्त्रीवसतीस्तत्कृतोपचाररूपा वा माया आत्महिताद्वेतो: 'जहाहि' परित्यजेति ॥१६॥ किं केचनाभ्युपगभ्यापि प्रवज्यां स्त्रीसम्बन्धं कुर्युः ?, येनैवमुच्यते, ओमित्याह
टीकार्थ - स्त्रियाँ सन्मार्ग-धर्म के उत्तम मार्ग में बाधा पैदा करने वाली हैं । वे कपाटों में लगने वाली आगल की ज्यों है । उनके आवास पर जाना, उनके साथ बातचीत करना, उनसे दान लेना, उन्हें देखना, परिचय करना ये सब तद्विषयक मोहोदय के कारण लोगों में होता है । जो व्यक्ति स्त्रियों के साथ परिचय बढ़ाते हैं, वे किस प्रकार के हैं । इसका समाधान उपस्थित करते हुए कहते हैं कि वे समाधि-धर्मयोग से तथा योग
समाधिमूलक मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापार से भ्रष्ट हैं, वे शिथिल विहारी हैं, नारियों के साथ परिचय • बढ़ाने से समाधियोग विनष्ट हो जाता है । अतएव उत्तम कोटि के साधु स्त्रियों की माया प्रवञ्चना में नहीं
पड़ते। जो सुख उत्पन्न करने के कारण, अनुकूल होने के कारण, निषद्या-आवास स्थान के सदृश है उसे निषद्या कहा जाता है, वह स्त्रियों का आवास स्थान निषद्या कहा जाता है, आत्म कल्याणेच्छु साधु वहाँ नहीं जाते । नारियों के संबंद्ध त्याग का जो उपदेश दिया गया है, वह स्त्रियों को भी ऐहिक व पारलौकिक हानि से बचाने के कारण आत्मा का हित करने वाला है । इस गाथा के उत्तरार्द्ध में तम्हा समणा उ जहाहि अहिताओ सन्नि सेज्जाओ' यह पाठान्तर है-जिसका अर्थ यह है कि-स्त्री संबंद्ध अनर्थ का कारण है, इसलिए स्त्रियों के निवास स्थान तथा उनके द्वारा प्रदर्शित सेवा परिचर्या रूप माया को आत्महित के निमित्त त्याग दे । क्या कोई प्रव्रज्या-श्रमण दीक्षा स्वीकार कर के भी नारी के साथ संबंद्ध कर सकते हैं ? जिससे ऐसा कहा जाता है, उत्तर में कहा गया है कि हाँ, कर सकते हैं ।
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