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स्त्री परिज्ञाध्ययनं
टीकार्थ जो मन्दमति - बुद्धिहीन पुरुष सद् अनुष्ठान - सद् आचरण का परित्याग कर वर्तमान सुख की ओर टकटकी लगाए, स्त्री संसर्ग आदि कार्यों में जो पहले वर्णित हुए हैं, तथा एकाकी गृहस्थ के घर जाकर किसी नारी को धर्मोपदेश देना आदि निन्दा योग्य कार्यों में जुड़े रहते हैं, वे पार्श्वस्थ अवसन्न कुशील ससंक्त तथा यथा छंद रूप कुशीलों में से कोई एक है। अथवा कायिक, पश्यक सम्प्रसारक तथा मामक संज्ञंक कुशीलों में से कोई एक है । अथवा उनके मध्य रहने से वे कुशील हैं- स्त्री सम्पर्क आदि निन्दा योग्य कर्मों का आचरण करने से साधु कुशील हो जाता है । जिस साधु ने उत्कृष्ट तपश्चरण द्वारा अपनी देह को परितप्त किया है, . वह भी यदि अपना हित आत्म कल्याण चाहता है तो समाधि चारित्र धर्म की परिपंथिनी - उसमें विघ्न करने वाली या उसका नाश करने वाली स्त्रियों के साथ कहीं न जाए, कहीं न ठहरे । यहाँ तृतीया विभक्ति के अर्थ में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग हुआ है, 'ण' शब्द वाक्य के अलंकार का सूचक है । साधु स्त्री को जलते हुए अंगारों के पुञ्ज की ज्यों दूर से ही त्याग दे, इस गाथा का यह आशय है ।
किन स्त्रियों के साथ विहरण नहीं करना चाहिए, इस आशंका के निराकरण हेतु सूत्रकार कहते हैं। ॐ ॐ ॐ
अवि धयराहि सुण्हाहिं, धातीहिं अदुव दासीहिं । महतीहि वा कुमारीहिं, संथवं से न कुज्जा अणगारे ॥ १३ ॥
छाया
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अनुवाद चाहे अपनी पुत्री हो, पुत्र वधु हो, धातृ - बच्चों को दूध पिलाने वाली धाय हो, दासी हो, बड़ी स्त्री हो, छोटी कन्या हो तो भी उसके साथ साधु को संस्तव परिचय नहीं करना चाहिए ।
अपि दुहितृभिः स्नूषाभिः धात्रीभि रथवा दासीभिः । महतीभिर्वा कुमारीभिः संस्तवं स न कुर्य्यादनगारः ॥
टीका अपिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, 'धूयराहि' त्ति दुहितृभिरपि सार्धं नविहरेत तथा 'स्नुषाः ' सुतभार्यास्ताभिरपि सार्धं न विविक्तासनादौस्थातव्यं, तथा 'धात्र्यः' पञ्चप्रकाराः स्तन्यदादयों जननी कल्पास्तामिश्च साकं न स्थेयं, अथवाऽऽसतां तावदपरा योषिता य अप्येता 'दास्यो' घटयोषितः सर्वापसदास्ताभिरपि सह सम्पर्कं परिहरेत्, तथा महतीभि: कुमारीभिर्वाशब्दाल्लध्वीभिश्च सार्धं 'संस्तवं' परिचयं प्रत्यासत्तिरूपं सोऽनगारो न कुर्यादिति, यद्यपि तस्यां दुहितरिस्नुषादौ वा न चित्तान्यथात्वमुत्पद्यते तथापि च तत्र विविक्तासन दावपरस्य शङ्कोत्पद्यते अतस्तच्छङ्कानिरासार्थं स्त्री सम्पर्कः परिहर्तव्य इति ॥१३॥ अपरस्य शङ्का यथोत्पद्यते तथा दर्शयितुमाहटीकार्थ प्रस्तुत गाथा में 'अपि' शब्द का प्रत्येक पद के साथ संबन्ध है । साधु अपनी संसार क्ष पुत्री के साथ भी कहीं न जाये । पुत्र की पत्नि स्नुषा कही जाती है, उनके साथ भी एकान्त स्थान आदि में न बैठे । धाय पांच प्रकार की होती है । जिन्होंने शैशवावस्था में स्तन्यपान कराया हो- दूध चुसवाया हो, सेवा परिचर्या की हो, जो मातृतुल्य होती है, उनके साथ भी साधु एकांत स्थान में न रहे । दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या है ? जो पानी भरने वाली निम्न कोटि की महिलाएं हैं उनके साथ भी साधु सम्पर्क न रखे, चाहे बड़ी स्त्री हो, चाहे छोटी कन्या हो, यहाँ आये हुए 'वा' शब्द के अनुसार कोई साध्वी हो तो उनके साथ भी साधु अपना संस्तव - परिचय न करे । यद्यपि अपनी कन्या या अपने बेटे की बहु के साथ एकांत में बैठने से साधु का चित्त विकृत न भी हो तो भी अन्य लोगों को एकान्त में साधु को महिला के साथ बैठा हुआ
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