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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् छाया - अथ सोऽनुतप्यते पश्चात् भुक्त्वा पायसमिव विषमिश्रम् ।
एवं विवेकमादाय संवासो नाऽपि कल्पते द्रव्ये ॥ अनुवाद - जैसे जहर से मिली हुई खीर खाकर मनुष्य बाद में अनुतप्त होता है, पछताता है, इसी प्रकार मनुष्य स्त्री के वशगत होकर बात में अनुताप करता है, पछतावा करता है । इस बात को समझते हुए मोक्ष पथ गामी साधु के लिए नारी के साथ एक स्थान में रहना अकल्प्य है ।
टीका - 'अह से' इत्यादि, अथासौ साधुः स्त्रीपाशावबद्धो मृगवत् कुटके पतितः सन् कुटुम्बकृते अहर्निशं क्लिश्यमानः पश्चादनुतप्यते, तथाहि-गृहान्तर्गतानामेतदवश्यं सम्भाव्यते, तद्यथा -
कोद्धयओ को समचित्तु काहो वणाहिं काहो दिज्जउ वित्त को उग्घाडउ परिहियउ । परिणीयउ को व कुमारउ पडियतो जीव खडप्फडेहि पर बंधई पावह भारओ ॥१॥ छाया - क्रोधिकः कः समचित्तः कथं उपनय कथं ददातु वित्तं कः उद्घाटकः परिहतः । परिणीतः को वा कुमारकः पतितो जीव खण्डस्फैटेः प्रबध्नातिपापभारं ॥ तथा तत् - "मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारूणम् । एकाकी तेन दोऽहं, गतास्ते फल भोगिनः ॥१॥"
इत्येवं बहु प्रकारं महामोहात्मके कुटुम्बकूटके पतिता अनुतप्यन्ते, अमुमेवार्थं दृष्टान्तेन स्पष्टयतियथा कश्चिद्विषमिश्रं भोजनं भुक्त्वा पश्चात्तत्र कृतावेगाकुलितोऽनुतप्यते, तद्यथा-किमेतन्मया पापेन साम्प्रतेक्षिणा सुखरसिकतया विपाककटुकमेवम्भूतं भोजनामास्वादितमिति, एवमसावपि पुत्रपौत्रदुहितृजामातृस्वसृभ्रातृव्यभागिनेयादीनां भोजन परियनालङ्कारजातमृतकर्मतद्वयाविचिकित्साचिन्ताकुलोऽपगतस्वशरीरकर्तव्यःप्रनष्टैहि कामुष्मिकानुष्ठानोऽहर्निशं तद्वयापारव्याकुलितमतिः परितप्यते, तदेवम् अनन्तरोक्तया नीत्या विपाकं स्वानुष्ठानस्य " आदाय" प्राप्य, विवेकमिति वा क्वचित्पाठः, तद्विपाकं विवेकं वा 'आदाय'-गृहीत्वा स्त्रीभिश्चारित्रपरिपन्थिनीभिः सार्धं संवासोऽवश्यं विवेकनामपि सदनुष्ठानविघातकारीति ॥१०॥ स्त्रीसम्बन्धदोषानुपदोपसंहरन्नाह -
टीकार्थ - कूट पाश में-जाल में या फंदे में बद्ध मृग जैसे कष्ट पाता है, उसी तरह नारी के जाल में बंधा हुआ साधु अपने कौटुम्बिक जनों के लिए-उनके पालन पोषण के निमित्त अहर्निश-रात दिन कष्ट भोगता हुआ अनुतप्त होता है-पछताता है । गृहस्थ में रहने वाले पुरुषों के सामने ऐसी बातें अवश्य आती है। जैसे कौन क्रोधी स्वभाव का है. किसके चित्त में समता है, किसे कैसे अपने वश में करूँ, अमुक व्यक्ति मुझे किस प्रकार धन दे, किस दानी को मैंने छोड़ दिया है, कौन परिणीत-विवाहित है, कौन कुमार-कुंआरा है, इस प्रकार प्राणी खडबडाहट-घबराहट के साथ जल्दवादी आतुरता दिखाता हुआ भारी पापों का बंध करता है । फिर पछताता हुआ कहता है कि मैंने परिजन-कुटुम्ब के लिए उसका पालन पोषण करने हेतु अनेक दारूण, कुत्सित, नीच कर्म किए । उन असत् कर्मों के कारण मैं एकाकी जल रहा हूँ, दुःख भोग रहा हूँ। मेरी कमाई का फल भोगने वाले न जाने कहाँ चले गए । इस प्रकार अनेक प्रकार से वह महामोह से परिपूर्ण कुटुम्ब के फंदे में पड़ा हुआ पछताता है । सूत्रकार दृष्टान्त द्वारा इसका स्पष्टीकरण करते हैं -
जैसे कोई आदमी जहर से मिला हुआ भोजन खाकर, फिर जहर के आवेग से-जहर का शरीर में असर फैलने पर व्याकुल होकर पछताता है कि वर्तमान में सुख रसिक-जिह्वा लोलुप बनकर मुझ पापी ने ऐसा
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