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उपसर्गाध्ययनं ___ अनुवाद - पूर्ववर्ती गाथाओं में जो कहा गया है, भिक्षु उन्हें परिज्ञात कर जानकर उत्तम व्रत तथा समिति से युक्त होता हुआ मृषावाद्-असत्य तथा अदत्तादान-चौर्य का व्युत्सर्जन करे-त्याग करे ।
टीका - तदेवद्यत्प्रागुक्तं यथा-वैतरणीनदीवत् दुस्तरा नार्यो यैः परित्यक्तास्ते समाधिस्थाः संसारं तरन्ति, स्त्रीसङ्गिनश्च संसारान्तर्गताः स्वकृतकर्मणा कृत्यन्त इति तदेवत्सर्वं भिक्षणशीलो भिक्षुः ‘परिज्ञाय' हेयोपादेयतया बुध्ध्वा शोभनानि व्रतान्यस्य सुव्रतः पञ्चाभिः समितिभिः समित इत्यनेनोत्तरगुणावेदनं कृतमित्येवंभूतः 'चरेत्' संयमानुष्ठानं विदध्यात्, तथा 'मृषावादम्' असद्भूतार्थभाषणं विशेषेण वर्जयेत्, तथा 'अदत्तादानं' च व्युत्सृजेद्' दन्तशोधनमात्रमप्यदत्तं न गृह्णीयात्, आदिग्रहणान्मैथुनादेः परिग्रह इति, तच्च मैथुनादिकं यावज्जीवमात्महितं मन्यमानः परिहरेत् ॥१९॥ अपरव्रतानामहिंसाया वृत्तिकल्पत्वात् तत्प्राधान्यख्यापनार्थमाह -
टीकार्थ - पहले ऐसा वर्णन आया है कि स्त्रियाँ वैतरणी नदी की तरह दुस्तर है-वैतरणी नदी की तरह उन्हें लाँघ पाना उनके वश में न आना कठिन है । जिन्होंने उनका परित्याग कर दिया हैं, वे समाधिस्थ
आत्म समाधि में लीन पुरुष संसार को पार कर जाते हैं । जो स्त्रियों का संग करते हैं-उनमें आसक्त रहते हैं, वे संसार में रहते हुए अपने कर्मों द्वारा काटे जाते हैं, पीडित किये जाते हैं । इन हेय, उपादेय बातों को जानकर स्त्री संसर्ग को त्याज्य और संयम को आदरणीय समझकर उत्तम व्रतों एवं समितियों से समित होता हुआ संयम की साधना करे । यहाँ समितियों द्वारा समित होने का उल्लेख उत्तर गुणों के कथन हेतु किया गया है । यों वर्तनशील साधु मृषावाद-असद् भाषण का परिवर्जन करे, अदत्तादान-चौर्य का व्युत्सर्जन-त्याग करे, दांत कुरेदने के लिए एक तिनका मात्र भी बिना दिया हुआ ग्रहण न करे । यहां आए हुए आदि शब्द से अब्रह्मचर्य आदि का ग्रहण अभिप्सित है । अत: अपने आत्म कल्याण हेतु साधु जीवन पर्यन्त अब्रह्मचर्य आदि का सेवन न करे ।
अहिंसा अन्य व्रतों के लिए बाड़ के तुल्य है, उसकी प्रधानता बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं ।
उड्वमहे तिरियं वा, जे केई तसथावरा ।। सव्वत्थ विरतिं कुज्जा, संति निव्वाणमाहियं ॥२०॥ छाया - ऊर्ध्व मध स्तिय॑क्षु ये केचित् त्रसस्थावराः ।
सर्वत्र विरतिं कुर्य्यात् शान्तिनिर्वाणमाख्यातम् ॥ अनुवाद - उर्ध्व-ऊपर, अध-नीचे तथा तिर्यक्-तिरछे दिग्भागों में जो त्रस-गतिशील तथा स्थावरस्थितिशील-चर, अचर प्राणी स्थित है, उनकी हिंसा में सर्वत्र, सर्वथा-सब प्रकार से निवृत रहना चाहिए, ऐसा करने से जीव को शांतिमय निर्वाण मोक्ष प्राप्त होता है, ऐसा गर्वनों द्वारा कहा गया है ।
टीका - ऊर्ध्वमधस्तिर्यश्वित्यनेन क्षेत्रप्राणातिपातो गृहीतः, तत्र ये केचन त्रसन्तीति वसा-द्वित्रिचतु: पञ्चेन्द्रिया:पर्याप्तापर्याप्तकभेदभिन्नाः,तथा तिष्ठन्तीति स्थावरा:-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तक भेदभिन्ना इति, अनेन च द्रव्यप्राणातिपातो गृहीतः, सर्वत्र काले सर्वास्ववस्थास्वित्यनेनापि कालभावभेदभिन्नः प्राणातिपात उपात्तो द्रष्टव्यः तदेवं चतुर्दशस्वपि जीवस्थानेषु कृतकारितानुमतिभिर्मनोवाक्कायैः प्राणातिपातविरतिं कुर्यादित्यनेन पादोनेनापि श्लोकद्वयेन प्राणातिपातविरत्यादयो मूलगुणा:ख्यापिताः,साम्प्रतमेतेषां सर्वेषामेव मूलोत्तरगुणानां फलमुद्देशेनाह-'शान्तिः' इति कर्मदाहोपशमस्तदेव च 'निर्वाण' मोक्षपदं यद् 'आख्यातं' प्रतिपादितं सर्वद्वन्द्वापगमरूपं तदस्यावश्यं चरणकरणानुष्ठायिनः साधोर्भवतीति ॥२०॥ समस्ताध्ययनार्थोपसंहारार्थमाह
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