________________
उपसर्गाध्ययनं
“सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति पुरुषस्तावदेवेन्द्रियाणां, लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । भ्रूचापाक्षेपमुक्ताः श्रवणपथजुषो नील पक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टि बाणा:
पतन्ति ॥ १ ॥
तदेवं वैतरणीनदीवत् दुस्तरा नार्यो
भवन्तीति ॥ १॥ अपिच्
टीकार्थ इस गाथा में जहां- यथा शब्द उदाहरण को सूचित करने के लिए प्रयोग में आया है । नदियों में वैतरणी नदी अत्यन्त वेगयुक्त है- बड़ी तेजी से बहती है, विषम तटयुक्त है - उसके किनारे बड़े विषम या उबड़-खाबड़ है । अतः उसे लाँघ पाना बहुत कष्टकर है। इसी प्रकार इस लोक में आत्म पराक्रम शून्य एवं विवेकहीन पुरुषों द्वारा स्त्रियाँ दुस्तर है- उनको लांघ पाना या उनसे बच पाना बहुत मुश्किल है । वे हाव भाव-कामुक चेष्टाओं द्वारा कृतविद्य - जिन्होंने गहन विद्याध्ययन किया है वैसे पुरुषों को भी अपने काबू में कर लेती हैं, कहा गया है कि मनुष्य तभी तक सन्मार्ग पर टिका रह सकता है, अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण बनाये रख सकता है, तभी तक लज्जाशील बना रह सकता है जब तक लीलावती - विविध लीलाओं में कुशल स्त्रियों द्वारा भृकुटि रूपी धनुष को कानों तक आकृष्ट कर छोड़े गये नील पक्ष युक्त नीले या काले पलक युक्त दृष्टि बाण उस पर नहीं गिरते । अतएव स्त्रियों को लाँघ पाना उनसे पार पाना उसी तरह दुस्तर कठिन है जैसे वैतरणी नदी को पार कर पाना दुस्तर है।
-
जेहिं नारीण संजोगा, पूयणा पिट्ठतो सव्वमेयं निराकिच्चा, ते ठिया
छाया यैर्नारीणां संयोगाः पूजना पृष्ठतः कृता । सर्वमेतन्निराकृत्य ते स्थिताः सुसमाधिना ॥
-
-
-
अनुवाद जिन पुरुषों ने स्त्रियों के संयोग-सन्सर्ग और काम विभूषा- काम शृंगार छोड़ दिये हैं. वे ही समग्र उपसर्गों का निराकरण कर, तिरस्कार कर अथवा उन्हें जीतकर उत्तम समाधि पूर्वक रहते हैं ।
कता । सुसमाहिए ॥१७॥
टीक़ा – ‘यैः' उत्तमसत्त्वै: स्त्रीसङ्गविपाकवेदिभिः पर्यन्तकटवो नारीसंयोगाः परित्यक्ताः, तथा तत्सङ्गार्थमेव वस्त्रालङ्कारमाल्यादिभिरात्मनः 'पूजना' कामविभूषा 'पृष्ठतः कृता' परित्यक्तेत्यर्थः, 'सर्वमेतत्' स्त्री प्रसङ्गादिकं क्षुत्पिपासादिप्रतिकू लोपसर्ग कदम्बकं च निराकृत्य ये महापुरुषसेवितपन्थानं प्रति प्रवृत्तास्ते सुसमाधिनास्वस्थचित्तवृत्तिरूपेण व्यवस्थिताः, नोपसर्गेरनुकूलप्रतिकूलरूपैः प्रक्षोभ्यन्ते, अन्ये विषयाभिष्वाङ्गिण स्त्र्यादिपरीषहपराजिता अङ्गारोपरिपतितमीनवद्रागाग्निना दह्यमाना असमाधिना तिष्ठतीति ॥१७॥
-
स्त्र्यादिपरीषहपराजयस्य फलं दर्शयितुमाह
टीकार्थ जो पुरुष स्त्रियों के सन्सर्ग के कटुफल प्रद विपार्क को जानते हैं। ऐसा कर जिन्होंने स्त्री ससंर्ग का परित्याग कर दिया है, स्त्री संसर्ग हेतु ही सुन्दर वस्त्र अलंकार आभूषण तथा पुष्पमाला द्वारा अपने शरीर को विभूषित किया जाता है, उस काम विभूषा का जिन्होंने परित्याग कर दिया है, वे पुरुष संसर्ग भूख प्यास आदि अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों को, विघ्नों को जीतकर उस धर्म मार्ग में प्रवृत्त हैं जो महापुरुषों द्वारा सेवित है । उनकी चित्त वृत्ति स्वस्थ प्रसन्न रहती है, वे उत्तम समाधि युक्त रहते हैं । वे अनुकूल
स्त्री
I
257