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उपसर्गाध्ययनं हुयी अपने बच्चों के शब्द सुनकर रोती रही किन्तु भेड़ अपने बच्चों के प्यार में अंधी होकर मौत की परवाह न करती हुई उस कुएँ में कूद पड़ी । इससे सभी जानवरों की अपेक्षा भेड़ का अपने बच्चों के प्रति अधिक प्रेम है यह साबित हुआ । उसी प्रकार पूर्वोक्त अन्य मतवादियों का काम भोग में अत्यधिक आसक्ति भाव सिद्ध होता है।
सूत्रकार काम में मोहित रहने वाले पुरुषों का दोष बताने हेतु प्रतिपादित करते हैं ।
अणागयमपस्संता,
पच्चुप्पन्नगवेसगा। ते पच्छा परितप्पंति, खीणे आउंभि जोव्वणे ॥१४॥ छाया - अनागतमपश्यन्तः प्रत्युपन्नगवेषकाः ।
ते पश्चात् परितप्यन्ते क्षीणे आयुषि यौवने ॥ अनुवाद - जो पुरुष अनागत-भविष्य में होने वाले क्लेशों को दुःखों को नहीं देखते, उस ओर ध्यान नहीं देते । प्रत्युतपन्ना-वर्तमान में होने वाले सुखों की गवेषण करते हैं-उनकी खोज में तत्पर रहते हैं, वे जवानी के चले जाने पर तथा आयु के क्षीण होने पर पछताते हैं ।
टीका - 'अनागतम्' एष्यत्कामानिवृत्तानां नरकादियातनास्थानेषु महत् दुःखम् 'अपश्यन्तः' अपलोचयन्तः, तथा 'प्रत्युत्पन्नं' वर्तमानमेव वैषयिकं सुखाभासम् 'अन्वेषयन्तो' मृगयमाणा नानाविधैरूपायैर्भोगान्प्रार्थयन्तः ते पश्चात् क्षीणे स्वायुषि जातसंवेगा यौवने वाऽपगते 'परितप्यन्ते' शोचन्ते पश्चात्तापं विदधति, उक्तं च
"हतं. मुष्टिभिराकाश, तुषाणां कण्डनं कृतम् । यन्मया प्राप्य मानुष्यं, सदर्थे नादरः कृतः ॥१॥" तथा - "विस्वावलेवनडिएहिं जाई कीरति जोव्वणमएणं । वयपरिणामे सरियाई ताई हिअए खुडुक्कंति॥१॥१४॥ छाया - विभवाबलेपनटितैर्यानि व क्रियन्ते यौवनमदेन । वयः परिणामे स्मृतानि तानि हृदयं व्यथन्ते ॥१॥
टीकार्थ - जो मनुष्य काम भोग से निवृत्त नहीं हैं, उनका जिन्होंने परित्याग नहीं किया है, जो नर्क आदि स्थानों में, जो दुःख सहन करने पड़ते हैं उन पर जिनकी निगाह नहीं है, जो सुख के आवास मात्र वर्तमान कालीन वैशेषिक सुखों की भिन्न-भिन्न उपायों द्वारा अभ्यर्थना करते हैं, वे जवानी के बीत जाने पर-आयु के क्षीण हो जाने पर दुःखित होकर विरक्त होकर पछताते हैं, शोक करते हैं, वे कहते हैं मनुष्य जन्म पाकर हमने सत-उत्तम धार्मिक कार्यों का आदर नहीं किया, वह हमारा ऐसा अज्ञान पूर्ण कार्य था मानों हम मुक्के से आकाश को तड़ित करते रहे तथा चाँवल निकालने हेतु धान्यहीन भूसे को कूटते रहे । धन के गर्व, जवानी के मद के कारण जो उत्तम कार्य नहीं किये गये, उम्र बीत जाने पर याद आते हैं तब हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठता है।
जेहिं काले परिक्कंतं, न पच्छा परितप्पए । ते धीरा बंधणुम्मुका, नावकंखंति जीविअं ॥१५॥
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