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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् - "काले प्रसूप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशाल नेत्रे ! ते प्रत्यया ये ग्रथमाझरेषु ॥
इस श्लोक का अर्थ इस प्रकार है-जनार्दन-भगवान या सूर्य नारायण के सो जाने पर, अस्त हो जाने पर आकाश छाये बादलों के अन्धकार से युक्त रातों में ये विशाल नेत्रे-बड़ी-बड़ी आँखों वाली प्रिय मैं झूठ नहीं बोलता । इस श्लोक के प्रत्येक चरण के शुरुआत के अक्षर का + मे + मि = कामेन् ते अर्थात् मैं तुम्हारी कामना करता हूँ । माया प्रधान-छल करने में निपुण स्त्रियाँ प्रत्युत्पन्नमति होने के कारण प्रतारण करने के-ठगने के उपायों को जानती हैं जिससे विवेकशील साधु भी वैसे कर्मोदय के कारण उनमें आसक्त हो जाते हैं।
पासे भिसं णिसीयंति अभिक्खणं पोसवत्थं परिहिंति ।
कायं अहेवि दंसंति, बाहु उद्धटु कक्खमणुव्वजे ॥३॥ छाया - पार्श्वे भृशं निषीदन्ति, अभीक्ष्णं पोषवस्त्रं परिदधति ।
___ कायमधोऽपि दर्शयति बाहुमुद्धृत्य कक्षामनुव्रजेत् ॥
अनुवाद - स्त्रियाँ साधु को प्रतारित करने हेतु उनके समीप बहुत बैठती हैं तथा काम वासना पैदा करने वाले सुन्दर वस्त्र, गीले होने का बहाना बनाकर अभीक्षण-निरन्तर पहनने का उपक्रम करती हैं । कामोद्दीपन हेतु शरीर के निम्न भाग का प्रदर्शन करती है या अपनी बाँह ऊँची उठाकर काँख दिखलाती हुई साधु के समक्ष आती हैं।
टीका- 'पाश्वे' समीपे भृशम्' अत्यर्थमूरूपपीडमतिस्नेहमाविष्कुर्वन्तयो 'निषीदन्ति' विश्रम्भमापादयितुमुपविशन्तीति, तथा कामं पुष्णातीति पोषं-कामोत्कोचकारि शोभनमित्यर्थः तच्च तद्वस्त्रं पोषवस्त्रं तद् 'अभीक्ष्णं' अनवरतं तेन शिथिलादिव्यपदेशेन परिदधति,स्वाभिलाषमावेदयन्त्यःसाधुप्रतारणार्थं परिधान शिथिलीकृत्य पुनर्निबध्नन्तीति, तथा 'अध:कायम्' ऊर्वादिकमनङ्गोछीपनाय 'दर्शयन्ति' प्रकटयन्ति, तथा 'बाहुमुध्धृत्य' कक्षामादर्श्य 'अनुकूलं' साध्वभिमुखं व्रजेत्' गच्छेत् । सम्भावनायां लिङ्, सम्भाव्यते एतदङ्गप्रत्यङ्गसन्दर्शकत्वं स्त्रीणामिति ॥३॥ अपिच
टीकार्थ - साधु को ठगने हेतु स्त्रियाँ जो उपाय करती हैं उन्हें बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं - स्त्रियाँ अपना अत्यधिक प्रेम व्यक्त करने हेतु एवं विश्वास पैदा करने हेतु साधु के निकट अधिक बैठती हैं । जो वस्त्र कामवासना को पुष्ट करता है उसे पोश वस्त्र कहा जाता है उस कामोत्तेजक सुन्दर वस्त्र को स्त्रियाँ शिथिलढीला आदि का बहाना बनाकर बार-बार पहनती हैं । तात्पर्य यह है कि अपना कामुक मनोभाव प्रकट करती हुयी साधु को ठगने हेतु अपने वस्त्र को शिथिल कर बार-बार बाँधती हैं । साधु में काम वासना जगाने हेतु वे अपने जंघा आदि अंगों का प्रदर्शन करती हैं । अपनी बाहें ऊँची कर कांख का प्रदर्शन करते हुए साधु के समक्ष आती हैं । यहाँ सम्भावना के अर्थ में लिङ्ग लकार का प्रयोग है । उससे यह संकेतित होता है कि सम्भवतया स्त्रियाँ साधु को अपने अंग प्रत्यंग दिखलाये।
सयणासवेहिं जोगेहिं इथिओ एगता णिमंतंति । एयाणि चेव से जाणे, पसाणि विरूवरूवाणि ॥४॥
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