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उपसर्गाध्ययन टीकार्थ - समागम की अभ्यर्थना करने वाली स्त्री के साथ संसर्ग करने में कोई प्राणी हिंसा मूलक दोष नहीं होता, इस विषय में बहुत दृष्टान्त यहाँ उपस्थित किये जाते हैं-जिस प्रकार आकाश में विहरणशील कपिञ्जल नामक पक्षिणी-चिड़िया आकाश में रहकर बिना हिलाए डुलाये जल पी लेती है, उसी प्रकार जो पुरुष राग-द्वेष शून्य बुद्धि से युक्त आदि संतान की उत्पत्ति के लिए स्त्री की देह को बर्बादी से ढककर उसके पास संबंध करता है उसे उस कपिञ्जल नामक पक्षिणी की तरह दोष नहीं लगता । यहाँ अब्रह्मचर्य के संबंध में अन्य तीर्थिकों की मान्यताएं कही गई हैं-कई प्रतिपादित करते हैं कि जैसे फोड़े को दबाकर मवाद या विकृत रक्त निकाल दिया जाता है-उसी प्रकार स्त्री के साथ सम्बन्ध किया जाता है । कई कहते हैं कि जैसे भेड़ दूसरे को कष्ट न देती हुई जल पीती है, उसी प्रकार अन्यों को पीड़ा न देते हुए अपने तथा दूसरे के लिए स्त्री पुरुष दोनों के लिए अब्रह्मचर्य सुखप्रद है । इसी प्रकार एक मान्यता यह है कि कपिञ्जल नामक चिड़ियाँ अपनी चोंच के आगे के हिस्से के अतिरिक्त अपने अन्य अंगों द्वारा सरोवर के पानी को नहीं छूती हुई उसे पीती है, इसी प्रकार जो पुरुष राग द्वेष शून्य बुद्धि द्वारा स्त्री की देह को दर्भ आदि से ढ़ककर उसके गात्र का स्पर्श न करते हुए पुत्र हेतु न कि कामवासना पूर्ति हेतु शास्त्र विहित नियमानुसार ऋतु काल में समागम करता है, उसको दोष नहीं लगता । उन्होंने कहा है अपनी स्त्री पर अपना अधिकार रखने वाले, पुरुष द्वारा धर्म हेतु पुत्रोत्पत्ति के लक्ष्य से ऋतुकाल में समागम करना शास्त्रीय विधान है, उसमें दोष नहीं होता ।
___ इस प्रकार धर्माराधना से उदासीन-विरक्त रहने वाले अन्य मतवादियों का नियुक्तिकार तीन गाथाओं द्वारा दृष्टान्त के रूप में निराकरण करने हेतु उत्तर देने के लिए प्रतिपादित करते हैं -
यदि कोई पुरुष खड्ग द्वारा किसी का मस्तक उच्छिन्न कर फिर पराङ्मुख होकर स्थित हो जाय तो क्या उस द्वारा यों उदासीनता या पराङ्मुखता के अवलम्बन से उसका वह अपराध मिट जाता है ? जैसे कोई पुरुष जहर का चूंट पी ले ओर वह किसी के देखे बिना चुपचाप रहे तो क्या औरों द्वारा न देखे जाने से वह मर नहीं जायेगा? उसी प्रकार कोई मनुष्य किसी वैभवशाली धनी पुरुष के खजाने से बेशकीमती जवाहरात चुराकर पराङ्मुख हो जाय, वहाँ से हट जाय तो क्या वह चोर समझकर गिरफ्तार नहीं किया जायेगा ।
यहाँ कहने का अभिप्राय यह है कि यदि कोई पुरुष शठतावश किसी का मस्तिष्क उच्छिन्न कर दें, जहर पी ले अथवा जवाहरात चुरा ले-ऐसा कर वह मध्यस्थ वृत्ति या तटस्थता स्वीकार कर ले तो वह निर्दोषनिरपराध नहीं हो सकता, इसी प्रकार अब्रह्मचर्य जो राग प्रसूत है, समस्त दोषों का हेतु है-संसारवर्धक हैजन्म मरण के चक्र को बढ़ाने वाला है, किसी भी तरह निर्दोष-दोष रहित नहीं हो सकता । इस सम्बन्ध में विद्वानों ने कहा है कि शास्त्र में अब्रह्मचर्य को प्राणियों का बाधक विध्वसंक बताया है - जैसे एक नली के भीतर तपी हुई आग के कण डालने से उसके भीतर की वस्तुएं नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार अब्रह्मचर्य के सेवन से आत्मशक्ति विनष्ट हो जाती है । अब्रह्मचर्य सेवन अधर्म-पाप का मूल है, संसार में आवागमन को बढ़ाता है । जो पुरुष पाप की इच्छा नहीं करता है उसे जहर से पूर्ण अन्न का ज्यों परित्याग कर देना चाहिए। नियुक्ति की इन तीन गाथाओं का यह तात्पर्य या भावार्थ है ।
अब सूत्रकार इस प्रकरण का उपसंहार करते हुए फोड़े से मवाद निकालने की जो अब्रह्मचर्य को सुखद बताने वाले लोगों के मन्तव्य को दोष युक्त साबित करने हेतु कहते हैं ।
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