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- उपसर्गाध्ययनं । है कि साधु यह मानता है कि मैं यह करता हूँ कृतकृत्य हूँ, अपना उत्तरदायित्व निभा रहा हूं, रुग्ण साधु की सेवा परिचर्या करे ।
संखाय पेसलं धम्मं, दिट्ठिमं परिनिव्वुडे । उवसग्गे नियामित्ता, आमोक्खाए परिव्वएजासि ॥२२॥त्तिबेमि।। इति उवसग्ग परिन्नाणामं तइयं अज्झयणं सम्मत्ते ।ग्राथाग्रं २५६॥ छाया - संख्याय पेशलं धर्मं दृष्टिमान् परिनिर्वृतः ।
उपसर्गान् नियम्य आमोक्षया परिवजेत् ॥ अनुवाद - दृष्टिमान-सम्यग्दृष्टि, पेसल-शांत, परिनिर्वृत-मोक्ष, में अनुरक्त इस धर्म को भली भांति समझकर उपसर्गों को नियंत्रित करता हुआ-झेलता हुआ मोक्ष प्राप्त होने तक संयम का अनुसरण करे ।
टीका - 'संख्याये' ति सम्यक् ज्ञात्वा स्वसम्मत्या अन्यतो वा-श्रुत्वा 'पेशलं'-ति मोक्षगमनं प्रत्यनुकूलं, किं तद् ?-'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं 'दृष्टिमान्' सम्यग्दर्शनी 'परिनिर्वृत' इति कषायोपशमाच्छीतीभूतः परिनिर्वृत कल्पो वा 'उपसर्गान्' अनुकूलप्रतिकूलान् सम्यग् 'नियम्य' अतिसह्य 'आमोक्षाय' मोक्षं यावत् परि-समन्तात् 'व्रजेत्' संयमानुष्ठानेन गच्छेदिति, इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत्, नय चर्चाऽपि तथैवेति ॥२२॥
टीकार्थ - अपनी सम्मति-बुद्धि या विवेक से जानकर या अन्य से श्रवण कर मोक्षानुकूल श्रुतचारित्र मूलक धर्म को स्वायत्त कर, सम्यग्दर्शन युक्त, कषायों के उपशम से प्रशांत अथवा परिनिर्वृकल्प-मुक्त तुल्य पुरुष प्रिय एवं अप्रिय उपसर्गो को सहता हुआ मोक्ष प्राप्त करने तक संयम का परिपालन करे । इति शब्द यहाँ समाप्ति द्योतक है, ब्रवीमि बोलता हूँ, यह पद पूर्ववत् योजनीय है । नय चर्चा भी पहले की ज्यों ही
उपसर्ग परिज्ञा का चौथा उद्देशक समाप्त हुआ, तथा उसकी समाप्ति के साथ यह तीसरा अध्ययन पूरा हुआ ।
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