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वैतालिय अध्ययनं हो, अन्य लोगों द्वारा किये गये वंदन पूजन-सम्मान सत्कार आदि को सदनुष्ठान-उत्तम आचरण और उत्तम गति में बहुत बड़ा विघ्न समझकर उसका परित्याग कर दे । जब वंदन पूजन आदि भी उत्तम कार्य और उत्तम गति में बाधाजनक है तब फिर शब्द आदि इन्द्रियों के भोग्य विषयों में आसक्त होने की बात ही क्या है ? वे तो अत्यन्त विघ्नकारक है ही । विवेकशील पुरुष उस सूक्ष्म-आत्यन्त बारीक और दुरुद्धर-कष्ट से निकाले जा सकने योग्य कांटे को निकाल फेंके जिसका उपाय आगे कहा जा रहा है।
एगे चरे (र) ठाण माणसे, सयणे एगे (ग) समाहिये सिया । . भिक्खू उवहाणवीरिए वहगुत्ते अज्झत्तसंवुडो ॥१२॥ छाया - एकश्चरेत् स्थानमास ने शयन एकः सम्माहितः स्यात् ।
भिक्षुरुपधानवीर्यः वाग्गुप्तोऽध्यात्मसंवृत्तः ॥ अनुवाद - एक भिक्षु जो वचन एवं मन द्वारा गुप्त हो-वाचिक और मानसिक दृष्टि से पाप कार्यों से निवृत्त हो, तपश्चरण में पराक्रमशील हो, अध्यात्मलीन हो, स्थान, आसन एवं शयन इनमें एकाकी जीवनयापन करता हुआ धर्म ध्यान में अनुरत रहे-एकाकी विचरण करे ।
टीका - एकोऽसहायो द्रव्यत एकल्लविहारी भावतो राग द्वेषरहितश्चरेत् तथा स्थानं कायोत्सर्गादिकम् एक एव कुर्यात्, तथा आसनेऽपि व्यवस्थितोऽपि रागद्वेषरहित एव तिष्ठेत् एवं शयनेऽप्येकाक्येव समाहितः धर्मादिध्यानयुक्त: स्यात् भवेत् । एतदुक्तं भवति सर्वास्वप्यवस्थासु चरणस्थानासनशयनरुपासु रागद्वेषविरहात् समाहित एव स्यादिति । तथा भिक्षणशीलो भिक्षुः उपधानं तपस्तत्र वीर्य्य यस्य स उपधान वीर्य्य:-तपस्यनिगूहितबलवीर्य इत्यर्थः । तथा वाग्गुप्तः सुप-लोचिताभिधायी अध्यात्म मनस्तेन संवृत्तो भिक्षु भवेदिति ॥१२॥
___टीकार्थ - एक साधु असहाय-दूसरे की सहायता न लेता हुआ द्रव्य दृष्टि से एकल विहारी तथा भावत्मक दृष्टि से रागद्वेष रहित होकर विचरण करे । वह एकाकी रहता हुआ, कायोत्सर्ग आदि की साधना करे । वह आसन पर स्थित होता हुआ रागद्वेष विवर्जित रहे । सोता हुआ भी एकाकी ही धर्मध्यान से युक्त रहे । कहने का अभिप्राय यह है कि वह भिक्षणशील साधु चलने बैठने एवं खड़े होने तथा सोने आदि सभी स्थितियों में राग द्वेष से रहित होकर धर्मादि ध्यान में लीन रहे । वह तप की आराधना में अपना आत्म पराक्रम विशेष रूप से प्रकट करे । वह वाक्गुप्त रहे । भली भांति पर्यालोचनाचिन्तन विमर्श आदि कर वाक्य बोले। अपने मन को नियंत्रण में रखे ।
णो पीहे ण याव पंगुणे, दारं सुन्नध रस्स संजए । पुढे ण उदाहरे वयं, ण समुच्छे णो संथरे तणं ॥१३॥ छाया - नो पिदध्यान्न यावत् प्रगुणयेवारं शून्यगृहस्यभिक्षुः ।
पृष्टो नो दाहरेद्वाचं न समुछिंद्या नो संस्तरेत्तृणम् ॥ अनुवाद - साधु किसी सूने घर का दरवाजा न खोले और न बन्द ही करे । कोई कुछ पूछे तो कुछ न कहे । उस घर का कूडा कचरा साफ न करे और वहां विश्राम के लिये तृण घास फूस न बिछाये।
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