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( श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् द्वितीयः उद्देशकः
उक्तः प्रथमोद्देशक, साम्प्रतं द्वितीयः समारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः इहोपसर्गपरिज्ञाध्ययने उपसर्गाः प्रतिविपादयिषिताः ते चानुकूलाः प्रतिकूलाश्च, तत्र प्रथमोद्देशके प्रतिकूलाः प्रतिपादिताः, इह त्वनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्याऽऽदिसूत्रम् -
अब तृतीय अध्ययन का द्वितीय उद्देशक प्रारम्भ किया जाता है ।
पहला उद्देशक वर्णित किया जा चुका है, अब दूसरा उद्देशक शुरु किया जा रहा है, इस दूसरे उद्देशक का पहले उद्देशक के साथ संबंध है । यह उपसर्ग परिज्ञा अध्ययन है । इसमें उपसर्गों का स्वरूप बताना अभिप्सित है । उपसर्ग दो प्रकार के हैं-प्रतिकूल और अनुकूल । प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन प्रथम उद्देशक में आ चुका है। इस उद्देशक में अनकल उपसर्गों का वर्णन किया जा रहा है। इस दसरे उद्देशक का पहले से यही संबंध है. । इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
अहिमे सहुमा संगा, भिक्खुणं जे दुरुत्तरा । जत्थ एगे विसीयंति, ण चयंति जवित्तए ॥१॥ छाया - अथेमे सूक्ष्माः सङ्गाः भिक्षूणां ये दुरुत्तराः । '
तत्रैके विषीदंति न शक्नुवन्ति यापयितुम् ॥ अनुवाद - प्रतिकूल उपसर्ग कहे जाने के अनन्तर अब अनुकूल उपसर्ग प्रतिपादित किये जाते हैं। ये बड़े सूक्ष्म होते हैं । भिक्षु बड़ी कठिनता से इन उपसर्गों को लांघ सकते हैं, बर्दास्त कर सकते हैं, किन्तु कई पुरुष इन उपसर्गों से विषण्ण-विकृत हो जाते हैं, वे अपने संयम जीवन का पालन करने में असमर्थ हो जाते हैं।
टीका - 'अथ' इति आनन्तर्ये, प्रतिकूलोपसर्गानन्तरमनुकूलाः प्रतिपाद्यन्त इत्यानन्तयार्थः ते 'इमे' अनन्तरमेवाभिधीय माना प्रत्यक्षासन्नवाचित्वादिदमाऽभि धीयन्ते, ते च 'सूक्ष्माः' प्रायश्चेतोविकारकारित्वेन नान्तराः, न प्रतिकूलोपसर्गा इवबाहुल्येनशरीरविकारकारित्वेन प्रकटतया बादरा इति, 'सङ्गा' मातापित्रादिसम्बन्धाः य एते "भिक्षूणां' साधूनामपि 'दुरुत्तरा' दुर्लक्या-दुरतिक्रमणीया इति, प्रयोजीवितविघ्नकरैरपि प्रतिकूलोपसर्ग रूदीर्णैर्माध्यस्थ्यमवलम्बयितुं महापुरुषैः शक्यम्, एतेत्वनुकूलोपसर्गास्तानप्युपायेन धर्माच्यावयन्ति, ततोऽमी दुरुत्तरा इति, 'यत्र' येषूपसर्गेषु सत्स 'एके' अल्पसत्वाः सदनुष्ठानं प्रति 'विषीदन्ति' शीतलविहारित्वं भजन्ते सर्वथा वा-संयमं त्यजन्ति, नैवात्मानं संयमानुष्ठानेन 'यापयितुं'-वर्तयितुं तस्मिन् वा व्यवस्थापयितुं शक्नुवन्ति' समर्था भवन्तीति ॥१॥
टीकार्थ - प्रस्तुत गाथा में 'अथ' शब्द अनन्तर का अर्थ बोधित करने हेतु अभिहित हुआ है। प्रतिकूल उपसर्ग कहने के अनन्तर अब अनुकूल उपसर्ग कहे जाते हैं । यह बताना इसका लक्ष्य है । यहां 'इमे' 'इदं' शब्द का जो प्रयोग आया है, वह प्रत्यक्ष तथा समीपवर्ती वस्तु का वाचक है, जिससे वे अनुकूल उपसर्ग गृहीत किये गए हैं, जो आगे बताये जायेंगे ।
पारिवारिक जनों का स्नेहात्मक उपसर्ग बाहरी शरीर को विकृत नहीं करता वरन् वह चित्त को विकृत करता है, बिगाड़ता है । इसलिए उसे सूक्ष्म-आन्तरिक कहा जाता है, प्रतिकूल उपसर्ग जिस प्रकार व्यक्त रूप
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