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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् इदं व्याकरणं गणितं जोतिष्कं वैद्यकं होराशास्त्रं मन्त्रादिकं वा श्रुतमधीतं ममावमादौ त्राणाय स्यादिति ॥३॥ एतच्चैतेऽवकल्पयन्तीत्याह -
टीकार्थ - जिस प्रकार एक कायर पुरुष जो युद्ध में प्रविष्ट होना चाहता है-संग्राम में सैनिक के रूप में भाग लेना चाहता है तो वह पहले ही देखता है कि हार जाने के बाद ऐसा कौनसा वलय, गड्ढा आदि स्थान मेरी रक्षा हेतु उपयोगी होगा । इसी प्रकार वह साधु जिसका चित्त स्थिर नहीं होता, जिसमें यथेष्ट आत्मबल नहीं होता, जीवन पर्यन्त संयम का पालन करने में अपने आपको असमर्थ समझ कर आगामी काल में संभावित भय या कठिनाईयों के विषय में सोचता है कि-मैं निष्किञ्चन-अकिंचन हूँ, मेरे पास कुछ भी नहीं है, जब बुढ़ापा आयेगा, रूग्णता आदि ग्लानावस्था उत्पन्न होगी, कभी दुर्भिक्ष हो जायेगा तो मेरी कौन रक्षा करेगा । यों जीविका साधन के भय से वह विचार करता है कि व्याकरण, गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, होराशास्त्र, मंत्रशास्त्र आदि जो मेरे द्वारा अधीत है, संकट के समय मुझे त्राण देंगे, मेरी रक्षा करेंगे । वे आत्मबल विहीन पुरुष और भी कल्पना करते हैं, जो सूत्रकार इस प्रकार बतलाते हैं ।
को जाणइ विऊवातं, इत्थीओ उदगाउ वा । चोइजंता पवक्खामो, ण णो अत्थि पकप्पियं ॥४॥ छाया - को जानाति व्यापातं स्त्रीत उदकाद्वा ।
चोद्यमाना प्रवक्ष्यामो न नोऽस्ति प्रकल्पितम् ॥ अनुवाद - संयम का पालन करने में जिसका चित्त अस्थिर या विचलित होता है, वह सोचने लगता है कि कहीं स्त्री के प्रसंग में मैं संयम से डिग जाऊँ अथवा सचित्त पानी के प्रयोग से अपने को रोक न पा सकने के कारण साधुत्व से भ्रष्ट हो जाऊं, यह कौन जानता है ? मेरे पास कुछ संग्रहित द्रव्यांदि भी नहीं है । इसलिए मैंने जो लौकिक शास्त्रों का अध्ययन किया है, उन्हीं के द्वारा संकट के समय में मैं किसी तरह निर्वाह कर सकूँगां ।
टीका - अल्पसत्त्वाः प्राणिनो विचित्रा च कर्मणां गतिः बहुनि प्रमादस्थानानि विद्यन्ते अत: 'को जानाति?' कः परिच्छिनत्ति 'व्यापातं' संयमजीवितात् भ्रंशं, केन पराजितस्य मम संयमाद् भ्रंशः स्यादिति, किम् 'स्त्रीतः' स्त्रीपरिषहात् उत 'उदकात्' स्नानाद्यर्थमुदकासेवनाभिलाषाद् ?, इत्येवं ते वराकाः प्रकल्पयन्ति, न 'न:' अस्माकं किञ्चन 'प्रकल्पितं' पूर्वोपार्जितद्रव्यजातमस्ति यत्तस्यामवस्थायामुपयोगं यास्यति,अतः'चोद्यमानाः परेण पृच्छयमाना हस्तिशिक्षाधनुर्वेदादिकं कुटिलविण्टलादिकं वा 'प्रवक्ष्यामः' कथयिष्यामः प्रयोक्ष्याम इत्येवं ते हीनसत्वाः सम्प्रधार्य व्याकरणा दौ श्रुते प्रयतन्त इति, न च तथापि मन्दभाग्यानामभिप्रेतार्थवाप्तिर्भवतीति तथा चोक्तम् -
__ "उपशमफलाद्विद्यावीजात्फलं धनमिच्छतां, भवति विफलो यद्यायासस्तदत्र किमद्भुतम् ? । न नियतफलाः कर्तुर्भावाः फलान्तरमीशते, जनयति खलु व्रीहेर्बीजं न जातु यदाङ्करम् ॥१॥ इति ।।४॥ उपसंहारार्थमाह -
टीकार्थ - आत्मबलविहीन-अभागे पुरुष ऐसा सोचते हैं कि प्राणियों में पराक्रम-आत्मबल स्वल्प होता है, कर्मों की गति बड़ी विचित्र होती है, न जाने कब क्या घटित हो जाए, प्रमाद आने के भी अनेक हेतु हैं । ऐसी स्थिति में यह कौन जान सकता है कि किस विघ्न से पराजित होकर मैं संयम से भ्रष्ट हो
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