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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् एक्को सचक्खुगो जह अंधलयाणं सएहिं बहुएहिं । होइ वरं दट्ठव्वो णहु ते बहुगा अपेच्छंता ॥३॥ छाया - एकः सचक्षुष्को यथा अन्धानांशतै बहुभिर्भवति वरं द्रष्टव्यो नैव बहुका अप्रेक्षमाणाः। एवं बहुगावि मूढाणपमाणं जे गई ण याणंति । संसार गमण गुविलं विडणस्स य बंधमोक्खस्स ।४॥" छाया - एवं बहुका अपि मूढ़ा न प्रमाणं ये गतिं न जानन्ति, संसारा गमनं वक्रो निपुणयोर्बंधमोक्षयोश्च । इत्यादि ॥१७॥ अपिच -
टीकार्थ- गौशालक के सिद्धान्तवादी तथा दिगम्बर परम्परानुगतवादी समग्र अर्थानुरूप-साध्य पदार्थानुषङ्गीयुक्तियों द्वारा अर्थात् प्रमाणभूत हेतु एवं दृष्टान्तादि द्वारा जब अपने पक्ष में अपने को संस्थापित-प्रतिष्ठित करने में समर्थ नहीं होते, तब वाद का परित्याग कर अर्थात् सम्यक हेतु एवं दृष्टान्तों पर आधारित परस्पर वाद रूप जल्प को छोड़कर अपना पक्ष स्थापित करने की धृष्टता करते हैं, और ऐसा कहते हैं कि-पुराण, मानव धर्ममनुप्रणीत स्मृति आदि धर्मशास्त्र, साङ्गवेद-अंगो सहित वेद तथा चिकित्सा शास्त्र-आयुर्वेद, ये चार आज्ञा सिद्धईश्वरीय आज्ञा से प्रमाणित शास्त्र है । इसलिए तर्क द्वारा इनका हनन-खण्डन नहीं करना चाहिए। धर्म की परीक्षा के संदर्भ में युक्ति एवं अनुमान आदि बाह्य साधनों की क्या आवश्यकता है, क्योंकि अनेकानेक लोगों द्वारा स्वीकृत तथा राजा महाराजाओं द्वारा सम्मानित होने से प्रत्यक्ष ही हमारा धर्म श्रेष्ठ है, दूसरा नहीं। अन्य तीर्थ
| प्रकार विवाद करते हैं । दुस्साहस पूर्वक कहते हैं । उनको इस प्रकार उत्तर देना चाहिए । ज्ञानादि सार रहित धर्म बहुत हैं । बहुत लोगों द्वारा माना जाता हो तो भी उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । कहा हैएरण्ड के काठ की राशि-ढेर चाहे कितना ही बड़ा हो किन्तु वह मूल्य में एक पल परिमाण गोशीर्ष चन्दन के बराबर भी नहीं होता । जैसे एरण्ड के काठ की राशि गणना या परिमाण में, अधिक होने के बावजूद थोड़े से चन्दन के बराबर भी नहीं होती, उसी तरह विज्ञान रहित-अज्ञानी पुरुष संख्या में बहुत हो तो भी वे विज्ञानयुक्तविवेकयुक्त थोड़े से भी लोगों के बराबर नहीं होते । जैसे नेत्रवान एक पुरुष भी सैकड़ों चक्षुहीन पुरुषों से उत्तम होता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष एक भी हो तो वह सैकड़ों अज्ञानी जनों से उत्तम होता है । जो बन्ध, मोक्ष तथा संसार की गति को नहीं जानते वे अज्ञानी पुरुष संख्या में बहुत अधिक हों तो भी धर्म के संदर्भ में प्रमाणभूत नहीं माने जा सकते ।
. राग दोसाभिभूयप्पा, मिच्छत्तेण अभिद्रदुता ।।
आउस्से सरणं जंति, टंकणा इव पव्वयं ॥१८॥ छाया - रागद्वेषाभिभूतात्मानः, मिथ्यात्वेनाभिद्रुताः ।
___ आक्रोशान् शरणं यान्ति टङ्कण इव पर्वतम् ॥ __ अनुवाद - रागद्वेष से जिनकी आत्मा अभिभूत है-जो रागद्वेष से भरे हैं, मिथ्यात्व से अभिद्रूत- आक्रान्त हैं ऐसे अन्य सिद्धान्तवादी जब तत्व चर्चा में पराभूत हो जाते हैं तो आक्रोश, अपशब्द मारपीट आदि का आश्रय लेते हैं । जैसे टंकण-पर्वतों पर निवास करने वाली अनार्य जाति के लोग युद्ध में पराजित होकर पर्वत की शरण लेते हैं।
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