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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् चतुर्थः उद्देशकः
अस्य चायममिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गाः प्रतिपादिताः तैश्च कदाचित्साधुः शीलात् प्रच्याव्येतत्तस्य च स्खलितशीलस्य प्रज्ञापनाऽनेन प्रतिपाद्यते इति, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिमे सूत्रम्
____ इसका पूर्व उद्देशक के साथ यह सम्बन्ध है-पिछले उद्देशक में अनुकूल एवं प्रतिकूल परिषहों का प्रतिपादन किया गया है । उन उपसर्गों से अभिद्रुत होकर साधु का शील में भ्रष्ट-पतित हो जाना भी आशंकित है । शील से-संयम से पतित साधु जो उपदेश देता है, वह इस उद्देशक में वर्णित है इस सम्बन्ध में आयातसमुपस्थित इस उद्देशक का यह पहला सूत्र है ।
आहंसु महापुरिसा, पुव्विं तत्ततवोधणा । उदएण सिद्धिमावन्ना, तत्थ मंदो विसीयति ॥१॥ छाया - आहुर्महापुरुषाः पूर्व तप्ततपोधनाः ।
उदकेन सिद्धिमापन्ना स्तत्र मन्दो विषीदति ॥ अनुवाद - कतिपय मंद विवेकहीन पुरुष ऐसा आख्यात करते हैं कि पूर्वकाल में ऐसे तप्त तपोधनउग्र तपश्चरणशील महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने उदक-सचित्त जल का सेवन करते हुए सिद्धि प्राप्त की । यह सुनकर अज्ञजन सचित्त जल के सेवन में प्रवृत्त हो जाते हैं, अंततः दुःखित होते हैं।
___टीका - केचन अविदितपरमार्था 'आहुः' उक्तवन्तः किं तदित्याह-यथा 'महापुरुषाः' प्रधानपुरुषा वल्कलचीरितारागणर्षि प्रभृतयः 'पूर्वं' पूर्वस्मिन् काले तप्तम्-अनुष्ठितं तप एव धनं येषां ते तप्ततपोधनाःपञ्चाग्न्यादितपोविशेषेण निष्टप्तदेहाः, त एवम्भूताः शीतोदक परिभोगेन, उपलक्षणार्थ त्वात् कन्दमूलफलाधुप भोगेन च 'सिद्धिमापन्नाः' सिद्धिं गताः, तत्र' एवम्भूतार्थसमाकर्णने तदर्थसद्भावावेशात् 'मंदः' अज्ञोऽस्नानादित्याजितः प्रासुकोदक परिभोगभग्नः संयमानुष्ठाने विषीदति, यदिवा तत्रैव शीतोदक परिभोगे विषीदति लगति निमजतीतियावत्, न त्वसौ वराक एवमव धारयति, यथा तेषां तापसादि व्रतानुष्ठायिनां कुतश्चिज्जातिस्मरणादिप्रत्ययादाविर्भूत सम्यग्दर्शनानां मौनीन्द्र भाव संयम प्रतिपत्या अपगत ज्ञानावरणीयादिकर्मणां भरतादीनामिव मोक्षावाप्तिः न तुः शीतोदक परिभोगादिति ॥१॥ किञ्चान्यत् -
टीकार्थ - जिन्हें परमार्थ-परम तत्त्व विदित नहीं है, जो उसे नहीं जानते, वे अज्ञानी हैं । वे क्या कहते हैं, यह बतलाते हैं । वे कहते हैं कि पहले के समय में वल्कल चीरी, तारागण ऋषि आदि महापुरुष हुए, जिन्होंने तप रूप धन का अर्जन किया, पंचाग्नि आदि तपस्याओं द्वारा अपने शरीर को परितप्त किया । उन्होंने शीतल जल एवं कन्द, मूल, फल आदि का सेवन करते हुए सिद्धि प्राप्त की। यह श्रवण कर, इसे सत्य मानकर कोई पुरुष, जो प्रासुक-अचित, गर्म जल पीने से, स्नान न करने से आकुल हो, घबराया हुआ हो, संयम पालन में दुःख अनुभव करने लगता है, अथवा शीतलजल आदि उपयोग में लेने लगता है । वह अभागा यह नहीं सोचता कि उक्त तापस आदि व्रतों का पालन करते थे । किसी कारण वश उन्हें जाति स्मरण ज्ञान हुआ, अपना पूर्व जन्म याद आया । उन्होंने सम्यक दर्शन प्राप्त किया । सर्वज्ञ प्ररूपित भावसंयम आत्मसात् किया। उनके ज्ञानावरणीय आदि कर्म नष्ट हुए । फलतः उन्हें भरत आदि की ज्यों मोक्ष प्राप्त हुआ, शीतल जल का सेवन करने से नहीं।
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