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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् शान्त होता है। देह की अशुचिता-मलिनता वैराग्य का पथ है, जरा-वृद्धावस्था संवेग-तितिक्षा का हेतु है, समग्र पदार्थों का त्याग वह महान् उत्सव है जिसके लिए मर मिटना अत्यन्त आनन्दप्रद है । जन्म से तो केवल अपने सुहृद जनों के लिए ही प्रीति प्रद है । महापुरुषों के लिए यह सारा संसार संपत्तियों से परिपूरित है । इसमें विपत्ति या दु:ख के लिए जगह ही कहां है ।
एकान्त रूपेण सुख से ही सुख उत्पन्न होता है, यह मानने पर इस विचित्रता पूर्ण-विभिन्नतामय-जगत् की स्थिति ही नहीं बनती क्योंकि जो स्वर्ग में निवास करते हैं, वे नित्य सुखी हैं-अनवरत् सुख भोग करते हैं । सुख भोग के कारण उनकी पुनः उत्पत्ति स्वर्ग में ही होनी चाहिए । नरक में निवास करने वाले जीव दुःख ही दुःख भोगते हैं, इस कारण उनकी पुन: उत्पत्ति नरक में ही होनी चाहिए । नरक में निवास करने वाले जीव दुःख ही दुःख भोगते हैं, इस कारण उनकी पुन: उत्पत्ति नर्क में होनी चाहिए । इस कारण अपनेअपने कर्मों के अनुसार जीव के नाना गतियों में जाने के परिणाम स्वरूप जगत् की जो विचित्रता है, वह घटित नहीं हो सकती । ऐसा होना न तो शास्त्र संगत है और न अभीप्सित ही ।
मा एयं अवमन्नंता, अप्पेणं लुपहा बहुं । एतस्स (उ) अमोक्खाए, अओहारिव्व जूरह ॥७॥ छाया - मैनमवमन्यमाना अल्पेन लुम्पथ बहु ।
एतस्यत्वमोक्षे अयोहारीव जूरयथ ॥ अनुवाद - तुम इसकी-सद्धर्म की अवमानना तिरस्कार मत करो । तुच्छ, नगण्य वैषयिक सुख से लुब्ध होकर इस मोक्ष सुख की उपेक्षा मत करो । यदि असत्पक्ष का तुम त्याग नहीं करोगे तो स्वर्ग आदि का त्याग कर लोहा लेने वाले वणिक् की ज्यों पछताओगे।
टीका - ‘एवम्' आर्य मार्ग जैनेन्द्र प्रवचनं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमोक्षमार्ग प्रतिपादकं 'सुखं सुखेनैव विद्यते' इत्यादिमोहेन मोहिता 'अवमन्यमानाः' परिहरन्तः 'अल्पेन' वैषयिकेण सुखेन मा 'बहु' परमार्थसुखं मोक्षाख्यं 'लुम्पथ' विध्वंसथ, तथाहि-मनोज्ञाऽऽहारादिना कामोद्रेकः, तदुद्रेकाच्च चित्तास्वास्थ्यं न पुनः समाधिरिति, अपि च एतस्य' असत्पक्षाभ्युपगमस्य 'अमोक्षे अपत्यागे सति ‘अयोहारिव्य जरह ‘ति आत्मानं यूर्य कदर्थयथ, केवलं, यथाऽसौ अयसो-लोहस्याऽऽहर्ता अपान्तराले रूप्यादिलाभे सत्यपि दूरमानीतमितिकृत्वा नोज्झितवान्, पश्चात् स्वावस्थानावाप्तावल्पलाभे सति जूरितवान्-पश्चात्तापं कृतवान् एवं भवन्तोऽपि जूरयिष्यन्तीति ॥७॥
टीकार्थ- सुख से ही सुख मिलता है, इस मोहोत्पादक मन्तव्य से मोहित होकर-विमूढ़ बनकर तुम तीर्थंकर प्ररूपित सम्यकदर्शन जान चारित्रमय मोक्षमार्ग की अवमानना-अवहेलना करते हए
ए तुच्छ सांसारिक भोगों के लोभ से मोक्ष के पारमार्थिक-आध्यात्मिक आनन्द को लुप्त विध्वंस्त मत करो, उसे मत खोओ क्योंकि मनोज्ञ, आहार आदि द्वारा काम का-भोग वासना का उद्वेक-उभार होता है । उससे चैतसिक स्वस्थता मिट जाती है, आत्म समाधि प्रतिहत होती है । यदि इस असत्पक्ष मिथ्या सिद्धान्त का परित्याग नहीं करोगे तो लौह लिये चलने वाले वणिक की ज्यों अपने को केवल कदर्थित उत्पीडित करोगे-लौह का भार लेकर चलने वाले वणिक ने मार्ग के बीच चांदी, सोना आदि मिलने पर भी यह कहकर कि मैं इस लोहे की कितनी दूर से लिये आ रहा हूं, अब इसे कैसे त्याग दूँ, उसने लोहे को नहीं छोड़ा । बाद में अपने स्थान पहँचकर जब लोहे को बेचा
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