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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् एवमेगे उ पासत्था, पन्नवंति अणारिया । इत्थीवसं गया बाला, जिणसासणपरम्मुहा ॥९॥ छाया - एवमेके तु पार्श्वस्थाः प्रज्ञापन्त्यनाऱ्याः ।
स्त्रीवशङ्गता बालाः जिन शासनपरामुखाः ॥ अनुवाद - कतिपय अनार्य पार्श्वस्थ-सद्धर्म से बहिर्भूत अथवा अपने यूथ या धार्मिक आम्नाय से पृथक् भूत अज्ञानी स्त्रियों के वशगामी-स्त्रियों में आसक्त पुरुष ऐसा कहते हैं, जो आगे दी गाथाओं में वक्ष्य माण है।
टीका - तु शब्दः पूर्वस्माद्विशेषणार्थः, एवमि' ति वक्ष्यमाणयानीत्या, यदि वा प्राक्तन एव श्लोकोऽत्रापि सम्बन्धनीयः, एवमिति प्राणातिपातादिषु वर्तमाना 'एके' इति बौद्धविशेषा नील पटादयो नाथवादिकमण्डलप्रविष्टा वा शैवविशेषाः सदनुष्ठानात् पार्श्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसन्न कुशीलादयः स्त्री परीषह पराजिताः, त एवं 'प्रज्ञापयन्ति' प्ररूपयन्ति अनार्याः अनार्यकर्मकारित्वात्, तथाहि ते वदन्ति -
"प्रियादर्शनमेवास्तु, किमन्यैर्दर्शनान्तरैः ? । प्रप्यते येन निर्वाणं, सरागेणापि चेतसा ॥१॥"
किमित्येवं तेऽभिदधतीत्याह-'स्त्रीवशंगताः' यतो युवतीनामाज्ञायां वर्तन्ते 'बाला' अज्ञा राग द्वेषोपहतचेतस इति, रागद्वेषजितो जिनास्तेषां शासनम्-आज्ञा कषायमोहोपशमहेतुभूता तत्पराङ्मुखाः संसारभिष्वङ्गिणो जैनमार्ग विद्वेषिणः 'एतद्' वक्ष्य माणमूचुरिति ॥९॥
___टीकार्थ - प्रस्तुत गाथा में 'तु' शब्द का जो प्रयोग हुआ है, वह पहले कहे गए मत से विशेषता सूचित करने हेतु है । इसके अनुसार कई मिथ्यादृष्टि वक्ष्यमाण नीतिका-पद्धति का आश्रय लेकर कहते हैं । इनका यह तात्पर्य है, अथवा पूर्ववर्ती गाथा का ही यहाँ सम्बन्ध जोड़ना चाहिए, अर्थात् प्राणातिपात-जीवों के व्यापादन आदि में अभिरत कतिपय बौद्ध मतानुयायी अथवा नीले कपड़े पहनने वाले नाथ सम्प्रदाय से सम्बद्ध विशिष्ट शैव जो सद् अनुष्ठान-सद् धर्म के आचरण से पृथक रहने के कारण पार्श्वस्थ हैं, वे अथवा अपनी परम्परा से बहिर्भूत अवसन्न-अवसादयुक्त, कुशील-शील रहित पुरुष स्त्री परीषह से पराभूत होकर इस प्रकार कहते हैं । वे अनार्य-अनुत्तम या अधमकर्म करने के कारण अनार्य हैं । वे प्रतिपादित करते हैं हमें तो प्रियाप्रिय लगने वाली रमणी के दर्शन होने चाहिए । दूसरे दर्शनों से हमें क्या ? प्रिय-प्रीतिमयी रमणी के दर्शन से रागयुक्त चित्त होते हुए भी निर्वाण प्राप्त होता है । वे ऐसा क्यों कहते हैं, यह बतला रहे हैं । वे अज्ञ रागद्वेष से उपहत-उत्पीडित चित्तयुक्त स्त्रियों के वशगत हैं । अतएव वे नवयुवती स्त्रियों की आज्ञा का अनुसरण करते हैं । रागद्वेष विजेता पुरुष को जिन कहा जाता है । ऐसे जिनेन्द्र प्रभु की आज्ञा से जिसके द्वारा कषाय और मोह शांत होता है, विमुख होकर संसार में ग्रस्त रहते हैं, जैन मार्ग में विद्वेष करते हैं, आगे की गाथाओं में जैसा कहा गया है वे ऐसी बातें करते हैं ।
जहा गंडं पिलांग वा, परिपीलेज मुहुत्तगं । एवं विन्नवणित्थीसु, दोषो तत्थ कओ सिआ ? ॥१०॥ छाया - यथा गण्डं पिटकं वा परिपीडयेत मुहुर्तकम् । एवं वीज्ञापनीस्त्रीषु दोषस्तत्र कुतः स्यात् ॥
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